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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 41/ मन्त्र 17
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - सरस्वती छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्वे विश्वा॑ सरस्वति श्रि॒तायूं॑षि दे॒व्याम्। शु॒नहो॑त्रेषु मत्स्व प्र॒जां दे॑वि दिदिड्ढि नः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे । विश्वा॑ । स॒र॒स्व॒ति॒ । श्रि॒ता । आयूं॑षि । दे॒व्याम् । शु॒नऽहो॑त्रेषु । म॒त्स्व॒ । प्र॒ऽजाम् । दे॒वि॒ । दि॒दि॒ड्ढि॒ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वे विश्वा सरस्वति श्रितायूंषि देव्याम्। शुनहोत्रेषु मत्स्व प्रजां देवि दिदिड्ढि नः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वे। विश्वा। सरस्वति। श्रिता। आयूंषि। देव्याम्। शुनऽहोत्रेषु। मत्स्व। प्रऽजाम्। देवि। दिदिड्ढि। नः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 41; मन्त्र » 17
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (सरस्वति) उत्तम ज्ञान वाली विदुषि ! स्त्रि ! ( त्वे देव्याम् ) तुझ विदुषी ज्ञान और सुखदात्री के आश्रय पर ही हमारे ( विश्वा-आयूंषि ) समस्त आयु और जीवन सुख ( श्रिता ) आश्रित हैं । तू ( शुनहोत्रेषु ) सुख और ज्ञान देने वाले वृद्ध, ज्ञानी पुरुषों के बीच में ( मत्स्व ) आनन्दित हो और ( नः ) हमारी ( प्रजां ) उत्तम सन्तान को ( दिदिड्ढि ) उपदेश करे । (२) गृहस्थपक्ष में पति के सब आयु, जीवन, सुख ( देव्यां ) कमनीय, प्रेममयी स्त्री पर आश्रित हैं वह ( शुन-होत्रेषु ) सुख प्रद पदार्थों पर सुखी रहे, उत्तम सन्तान प्रदान करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ १, २ वायुः । ३ इन्द्रवायू । ४–६ मित्रावरुणौ । ७–९ अश्विनौ । १०–१२ इन्द्रः । १३–१५ विश्वेदेवाः । १६–१८ सरस्वती । १६–२० द्यावापृथिव्यौ हविर्भाने वा देवता ॥ छन्दः-१, ३, ४, ६, १०, ११, १३ ,१५ ,१९ ,२० ,२१ गायत्री । २,५ ,९ , १२, १४ निचृत् गायत्री । ७ त्रिपाद् गायत्री । ८ विराड् गायत्री । १६ अनुष्टुप् । १७ उष्णिक् । १८ बृहती ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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