ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
नि होता॑ होतृ॒षद॑ने॒ विदा॑नस्त्वे॒षो दी॑दि॒वाँ अ॑सदत्सु॒दक्षः॑। अद॑ब्धव्रतप्रमति॒र्वसि॑ष्ठः सहस्रंभ॒रः शुचि॑जिह्वो अ॒ग्निः॥
स्वर सहित पद पाठनि । होता॑ । हो॒तृ॒ऽसद॑ने । विदा॑नः । त्वे॒षः । दी॒दि॒ऽवान् । अ॒स॒द॒त् । सु॒ऽदक्षः॑ । अद॑ब्धऽव्रतप्रमतिः । वसि॑ष्ठः । स॒ह॒स्र॒म्ऽभ॒रः । शुचि॑ऽजिह्वः । अ॒ग्निः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नि होता होतृषदने विदानस्त्वेषो दीदिवाँ असदत्सुदक्षः। अदब्धव्रतप्रमतिर्वसिष्ठः सहस्रंभरः शुचिजिह्वो अग्निः॥
स्वर रहित पद पाठनि। होता। होतृऽसदने। विदानः। त्वेषः। दीदिऽवान्। असदत्। सुऽदक्षः। अदब्धऽव्रतप्रमतिः। वसिष्ठः। सहस्रम्ऽभरः। शुचिऽजिह्वः। अग्निः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञाग्निवत् उत्तमाधिकारी सभापति और सेनापति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
( होतृसदने होता ) होता आदि ऋत्विजों के बैठने के स्थान, वेदि में ( होता ) चरु आदि का ग्रहण करने वाला अग्नि जिस प्रकार ( दीदिवान् ) प्रकाशित होकर विराजता है उसी प्रकार ( होतृसदने ) शासन के अधिकार देने और लेनेवाले विद्वानों के विराजने के स्थान, सभाभवन में ( होता ) सब राज्यभार को स्वीकार करने वाला के ( अग्निः ) ज्ञानी और तेजस्वी, अग्रणी नायक पुरुष ( विदानः ) विद्वान् ( त्वेषः ) तेजस्वी, ( दीदिवान् ) प्रकाश करता हुआ, ( सुदक्षः ) उत्तम बल से युक्त कार्यकुशल, ( अदब्ध-व्रतप्रमतिः ) अपने कर्त्तव्य कर्मों और उत्तम शील, आचार के नाश न होने से उत्तम बुद्धि और ज्ञान से युक्त सदाचारी, उत्तम मननशील, ( वसिष्ठः ) राष्ट्र वासियों में सब से श्रेष्ठ और अन्यों को सुख से बसाने वाला, ( सहस्रम्भरः ) सहस्रों का भरण पोषण करने में समर्थ, ( शुचिजिह्नः ) पवित्र, सत्य वाणी बोलने हारा, होकर वेदी में होता या अग्नि के समान (असदत् ) मुख्य आसन पर विराजे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, ३ त्रिष्टुप् । ४ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । २ पङ्क्तिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
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