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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
    ऋषिः - उत्कीलः कात्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    इ॒मं न॑रो मरुतः सश्चता॒ वृधं॒ यस्मि॒न्रायः॒ शेवृ॑धासः। अ॒भि ये सन्ति॒ पृत॑नासु दू॒ढ्यो॑ वि॒श्वाहा॒ शत्रु॑माद॒भुः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । न॒रः॒ । म॒रु॒तः॒ । स॒श्च॒त॒ । वृध॑म् । यस्मि॑न् । रायः॑ । शेऽवृ॑धासः । अ॒भि । ये । सन्ति॑ । पृत॑नासु । दुः॒ऽध्यः॑ । वि॒श्वाहा॑ । शत्रु॑म् । आ॒ऽद॒भुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं नरो मरुतः सश्चता वृधं यस्मिन्रायः शेवृधासः। अभि ये सन्ति पृतनासु दूढ्यो विश्वाहा शत्रुमादभुः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। नरः। मरुतः। सश्चत। वृधम्। यस्मिन्। रायः। शेऽवृधासः। अभि। ये। सन्ति। पृतनासु। दुःऽध्यः। विश्वाहा। शत्रुम्। आऽदभुः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (ये) जो वीर पुरुष (पृतनासु) सेनाओं और संग्रामों में (दूढ्यः) दूसरे का बुरा सोचने वाले, एवं दुष्ट बुद्धि से युक्त शत्रुओं को (अभि सन्ति) पराजित करते हैं और जो (विश्वाहा) सदा, सब दिनों, अपने (शत्रुम्) नाशकारी शत्रु को (आदभुः) अच्छी प्रकार नाश करें ऐसे हे (नरः) वीर नायक लोगो ! हे (मरुतः) वायु के समान बलवान्, वेग से आक्रमण करने और बल से शत्रु को मारने और उखाड़ देने हारो ! आप लोग (इमम्) इस (वृधम्) सबको बढ़ाने हारे प्रधान पुरुष को (सश्चत) प्राप्त होओ, (यस्मिन्) जिसके अधीन रहकर आप लोग (रायः) धन के (शेवृधासः) सुखों को बढ़ाने हारे होओ, वा (रायः शेवृधासः) जिसके अधीन रहकर धनैश्वर्य भी सुखों को पुष्टों को करने वाले हों ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - उत्कीलः कात्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ५ भुरिगनुष्टुप। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ३ निचृद् बृहती। ४ भुरिग् बृहती ॥ षडृचं सूक्तम्॥

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