ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 16/ मन्त्र 2
इ॒मं न॑रो मरुतः सश्चता॒ वृधं॒ यस्मि॒न्रायः॒ शेवृ॑धासः। अ॒भि ये सन्ति॒ पृत॑नासु दू॒ढ्यो॑ वि॒श्वाहा॒ शत्रु॑माद॒भुः॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । न॒रः॒ । म॒रु॒तः॒ । स॒श्च॒त॒ । वृध॑म् । यस्मि॑न् । रायः॑ । शेऽवृ॑धासः । अ॒भि । ये । सन्ति॑ । पृत॑नासु । दुः॒ऽध्यः॑ । वि॒श्वाहा॑ । शत्रु॑म् । आ॒ऽद॒भुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं नरो मरुतः सश्चता वृधं यस्मिन्रायः शेवृधासः। अभि ये सन्ति पृतनासु दूढ्यो विश्वाहा शत्रुमादभुः॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। नरः। मरुतः। सश्चत। वृधम्। यस्मिन्। रायः। शेऽवृधासः। अभि। ये। सन्ति। पृतनासु। दुःऽध्यः। विश्वाहा। शत्रुम्। आऽदभुः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मरुतो नरो यूयं यस्मिञ्छेवृधासो रायः सन्ति तमिमं वृधं विश्वाहा सश्चत। ये पृतनासु दूढ्यः सन्ति शत्रुमादभुस्तानभि सश्चत ॥२॥
पदार्थः
(इमम्) (नरः) विद्याविनयनेतारः (मरुतः) वायव इव मनुष्याः (सश्चत) प्राप्नुत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वृधम्) वर्द्धकं व्यवहारम् (यस्मिन्) यस्मिन् व्यवहारे (रायः) श्रियः (शेवृधासः) शेवॄन् सुखानि दधति येभ्यस्ते (अभि) (ये) (सन्ति) (पृतनासु) मनुष्यसेनासु (दूढ्यः) दुःखेन ध्यातुं योग्यान् (विश्वाहा) सर्वाण्यहानि (शत्रुम्) (आदभुः) समन्ताद्धिंसन्तु ॥२॥
भावार्थः
राजपुरुषैर्यथा धनराजसत्ताप्रतिष्ठा वर्धेरन् यथा च सेनासूत्तमा वीरा जायेरन् यथा सत्यव्यवहारः सदाऽनुष्ठेयः ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (मरुतः) वायु के सदृश बलयुक्त मनुष्यो ! (नरः) विद्या और नम्रता के नायक आप लोग (यस्मिन्) जिस व्यवहार में (शेवृधासः) सुखवृद्धिकारक (रायः) धन (सन्ति) होते हैं उस (इमम्) इस (वृधम्) पुत्र आदि की वृद्धिकारक व्यवहार को (विश्वाहा) सर्वदा (सश्चत) प्राप्त करो (ये) जो (पृतनासु) मनुष्यों की सेनाओं में (दूढ्यः) कठिनता से पराजित होने योग्य पुरुष हैं ऐसे और (शत्रुम्) शत्रु को (आदभुः) सब ओर से नाश करें उन पुरुषों को (अभि) सबप्रकार प्राप्त होओ ॥२॥
भावार्थ
राजपुरुषों को चाहिये कि जिस प्रकार धन राजस्थिति और प्रतिष्ठा बढ़े और जिस प्रकार सेनाओं में उत्तम वीर पुरुष होवें, वैसा सत्य व्यवहार सदा करें ॥२॥
विषय
दुर्विचारों व दुर्भावों का अभिभव
पदार्थ
[१] हे (मरुतः नरः) = प्राणसाधना करनेवाले मनुष्यो ! (इमम्) = इस (वृधम्) = सब गुणों के दृष्टिकोण से बढ़े हुए परमात्मा का (सश्चता) = सेवन करनेवाले बनो। प्राणसाधना द्वारा चित्तवृत्ति का निरोध होकर प्रभु का साक्षात्कार होता है। उस प्रभु का, (यस्मिन्) = जिसमें कि (शेवृधास:) = सुखों का वर्धन करनेवाले (रायः) = धन हैं। प्रभु उन सब धनों का आधार हैं जो कि हमारे सुख का कारण बनते हैं । [२] प्रभु का सेवन करनेवाले वे हैं (ये) = जो कि (पृतनासु) = संग्रामों में (दूढ्य:) = [दुर्धियः] दुष्ट विचारों को (अभिसन्ति) = अभिभूत करते हैं और (विश्वाहा) = सदा (शत्रुम्) = विनाश करनेवाले 'कामक्रोध क्रोध-लोभ' आदि का (आदभुः) = हिंसन करते हैं। प्रभु का उपासक दुष्ट विचारों से व कामआदि दुष्ट वासनाओं से आक्रान्त नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना द्वारा प्रभु का उपासन करते हुए हम सुखवर्धक धनों को प्राप्त करें और दुर्विचारों व दुर्भावों को अभिभूत करनेवाले हों ।
विषय
वायुवत् वीरों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(ये) जो वीर पुरुष (पृतनासु) सेनाओं और संग्रामों में (दूढ्यः) दूसरे का बुरा सोचने वाले, एवं दुष्ट बुद्धि से युक्त शत्रुओं को (अभि सन्ति) पराजित करते हैं और जो (विश्वाहा) सदा, सब दिनों, अपने (शत्रुम्) नाशकारी शत्रु को (आदभुः) अच्छी प्रकार नाश करें ऐसे हे (नरः) वीर नायक लोगो ! हे (मरुतः) वायु के समान बलवान्, वेग से आक्रमण करने और बल से शत्रु को मारने और उखाड़ देने हारो ! आप लोग (इमम्) इस (वृधम्) सबको बढ़ाने हारे प्रधान पुरुष को (सश्चत) प्राप्त होओ, (यस्मिन्) जिसके अधीन रहकर आप लोग (रायः) धन के (शेवृधासः) सुखों को बढ़ाने हारे होओ, वा (रायः शेवृधासः) जिसके अधीन रहकर धनैश्वर्य भी सुखों को पुष्टों को करने वाले हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उत्कीलः कात्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ५ भुरिगनुष्टुप। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ३ निचृद् बृहती। ४ भुरिग् बृहती ॥ षडृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे धन, राज्याची स्थिती व प्रतिष्ठा वाढेल, ज्या प्रकारे सेनेमध्ये उत्तम वीर पुरुष निर्माण होतील तसा सत्य व्यवहार राजपुरुषांनी करावा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ye leaders of the good and noble citizens, heroes vibrant as winds and people of the land, join, serve and cooperate with this eminent and exalted ruler and support his order in which exist abounding wealths of the nation, and in which warriors unchallengeable in battle who rout and humiliate the enemies are ever standing on guard.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The enlightened person's duties are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! you are powerful like the winds and are a leader endowed with true knowledge and humility. You always resort to such dealings which increase joy, wealth and which put you on all-round growth. You come in contact with those persons who fight and conquer over evil minded men and overcome the enemy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Officers of the State should always endeavor in such a way that the wealth power and prestige of the State may ever grow and good heroes may join the armies. Such should be their truthful dealings.
Foot Notes
( मरुतः ) वायव इव मनुष्याः | = Powerful men like the winds. (शेवृधास: ) शेवुन सुखनि दधाति येभ्यस्ते | शेवम् इति सुखनाम (N.G. 3, 6) = For increasing. (दूढ्यः) दुःखेन ध्यातुं योग्याः । दूधः दुष्टधियः इति । महाषेंदयानन्द (ऋ० 1, 9, 4, 9) दूध्यः — दुष्टं ध्यायति विचारयति तस्मै इति स एव। = Evil minded.
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