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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 16/ मन्त्र 5
    ऋषिः - उत्कीलः कात्यः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    मा नो॑ अ॒ग्नेऽम॑तये॒ मावीर॑तायै रीरधः। मागोता॑यै सहसस्पुत्र॒ मा नि॒देऽप॒ द्वेषां॒स्या कृ॑धि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अम॑तये । मा । अ॒वीर॑तायै । री॒र॒धः॒ । मा । अ॒गोता॑यै । स॒ह॒सः॒ । पु॒त्र॒ । मा । नि॒दे । अप॑ । द्वेषां॑सि । आ । कृ॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो अग्नेऽमतये मावीरतायै रीरधः। मागोतायै सहसस्पुत्र मा निदेऽप द्वेषांस्या कृधि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा। नः। अग्ने। अमतये। मा। अवीरतायै। रीरधः। मा। अगोतायै। सहसः। पुत्र। मा। निदे। अप। द्वेषांसि। आ। कृधि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 16; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे सहसस्पुत्राऽग्ने ! त्वं नोऽमतये मा रीरधोऽवीरतायै मा रीरधोऽगोतायै मा रीरधो निदे द्वेषांसि माऽपाकृधि ॥५॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (अग्ने) विद्वन् (अमतये) विरुद्धप्रज्ञायै (मा) (अवीरतायै) कातरतायै (रीरधः) रध्याः हिंस्याः (मा) (अगोतायै) इन्द्रियविकलतायै (सहसः) बलस्य (पुत्र) पालक (मा) (निदे) निन्दकाय (अप) दूरीकरणे (द्वेषांसि) (आ) (कृधि) समन्तात् कुर्याः ॥५॥

    भावार्थः

    जिज्ञासुभिर्विदुषः प्राप्य प्रज्ञा वीरता जितेन्द्रियता विद्या सुशिक्षा धर्मो ब्रह्मज्ञानं च याचनीयम्। निन्दादिदोषान् निन्दकसङ्गं च विहाय सभ्यता सङ्ग्राह्या ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (सहसः) बल के (पुत्र) पालक (अग्ने) विद्वन् पुरुष ! आप (नः) हम लोगों की (अमतये) विपरीत बुद्धि के लिये (मा) नहीं (रीरधः) वश में करो तथा (अवीरतायै) कायरता के लिये (मा) नहीं वशीभूत करो (अगोतायै) इन्द्रियविकारता के लिये (मा) नहीं वशीभूत करो (निदे) निन्दक पुरुष के लिये (द्वेषांसि) द्वेष भावों को (मा) नहीं (अप) अलग करने में (आ) (कृधि) सब प्रकार कीजिये ॥५॥

    भावार्थ

    ज्ञान सुख की इच्छा करनेवाले पुरुषों को चाहिये कि विद्वानों के समीप प्राप्त होकर बुद्धि वीरता जितेन्द्रियता विद्या उत्तम शिक्षा धर्म और ब्रह्मज्ञान की प्रार्थना करें तथा निन्दा आदि दोष और निन्दक पुरुषों का सङ्ग त्याग के सभ्यता ग्रहण करें ॥५॥

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    विषय

    'अज्ञान, अवीरता व अप्रशस्तेन्द्रियता' से दूर

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (न:) = हमें (अमतये) = अज्ञान के लिये (मा रीरधः) = मत सिद्ध करिए,हमें अज्ञान का विषय न बनाइये। (अवीरतायै) = अवीरता के लिए भी हमें मत सिद्ध करिए । न हम अज्ञानी हों, न अवीर हों। मस्तिष्क में ज्ञान-सम्पन्न व शरीर में शक्ति सम्पन्न हों। [२] हे (सहसस्पुत्र) = बल के पुतले-बल के पुञ्ज प्रभो ! हमें (अगोतायै) = [गाव: इन्द्रियाणि] अप्रशस्तेन्द्रियता के लिए (मा) = मत सिद्ध करिए। हमारी सब इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य बड़ी अच्छी तरह से करनेवाली हों। हमें (निदे) = निन्दा के लिये (मा) = मत सिद्ध करिए। हम कभी भी निन्दा के पात्र न हों। हे प्रभो! आप (द्वेषांसि) = द्वेषों को (अपाकृधि) = हमारे से दूर करिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'ज्ञान, वीरता, प्रशस्तेन्द्रियता व अनिन्दा' को प्राप्त हों, तथा धर्मों का प्रतिपालन आवश्यक है तथा ज्ञानप्राप्ति हमें प्रभु के समीप प्राप्त कराती है। प्रभु हमें पवित्र बनाते हैं और हमारे साथ दिव्यगुणों का सम्पर्क करते हैं।

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    विषय

    उत्तम राजा से प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! हे तेजस्विन् ! तू हमें (अमतये) बुद्धिहीनता के कारण (मा रीरधः) मत नाश होने दे। (अवीरतायै मा रीरधः) वीरता के न होने के कारण मत नष्ट होने दे। (अगोतायै) भूमि और इन्द्रियों में बल न होने के कारण (मा रीरधः) मन विनष्ट होने दे। हे (सहसस्पुत्र) बल पराक्रम के पालक ! तू (निदे) निंदा, कलह के कारण (मा रीरधः) मत विनष्ट होने दे। अर्थात् प्रजा के नायक नेता विद्वान् और ऐश्वर्यवान् पुरुष प्रजा का नाश मूर्खता, भीरुता, इन्द्रिय-दौर्बल्य वा भूमिरहितता और पारस्परिक निन्दा के कारण न करें। प्रत्युत प्रजा में से अज्ञान, दुर्बुद्धि, भीरुता, इन्द्रिय-दौर्बल्य और निराश्रयता तथा विद्या और वाणी के अभाव, परस्पर निन्दा, कलह आदि को दूर करें। दुष्ट राजा प्रजा को मूर्ख, भीरु, दुर्बल, विद्या और भूमि सम्पत्ति से हीन रखता और परस्पर निन्दा द्वारा लड़ा लड़ा कर नाश किया करता है। और स्वार्थ साधा करता है। हे (अग्ने) अग्रणी पुरुष ! तू (नः) हमारे बीच में से (द्वेषांसि) द्वेषों को (अपाकृधि) दूरकर जिसे हम प्रजा गण द्वेषरहित और प्रेमयुक्त होकर बढ़ें। (२) परमेश्वर हम में से ये बातें दूर करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उत्कीलः कात्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः– १, ५ भुरिगनुष्टुप। २, ६ निचृत् पंक्तिः। ३ निचृद् बृहती। ४ भुरिग् बृहती ॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जिज्ञासूंनी विद्वानांजवळ जाऊन बुद्धी, वीरता, जितेन्द्रियता, विद्या, उत्तम शिक्षण, धर्म व ब्रह्मज्ञानाची प्रार्थना करावी. निंदा इत्यादी दोष व निंदक पुरुषांचा संग त्यागून सभ्यता ग्रहण करावी. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and power, abandon us not to poverty and intellectual disability, leave us not to cowardice, let us not suffer from debility of the senses, and subject us not to insult and calumny. Ward off all jealousy and enmity from us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of duties of enlightened is stressed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you are shining like the fire. O protector of the strength consign us not to bad (evil) intellect, or to cowardice, neither to the lack of the power of senses nor to reproach. Drive away all animosities.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the seekers after truth to ask the enlightened persons for good intellect heroism, self-control, wisdom, good education and knowledge of God. All should be cultured and civilized by giving up the habit of reviling and the company of the revilers.

    Foot Notes

    (अगोतायै ) इन्द्रिय विकलताये (अगोतायें ) गौरिति वाङ्नाम (N.G. 1, 11) अत्र गौ: सर्वेन्द्रियाणामुपलक्षणम् । = Lack of the power of the senses. (रीरध:) रघ्या:, हिंस्याः = Destroy or consign.

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