ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
अ॒ग्निं होता॑रं॒ प्र वृ॑णे मि॒येधे॒ गृत्सं॑ क॒विं वि॑श्व॒विद॒ममू॑रम्। स नो॑ यक्षद्दे॒वता॑ता॒ यजी॑यान्रा॒ये वाजा॑य वनते म॒घानि॑॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । होता॑रम् । प्र । वृ॒णे॒ । मि॒येधे॑ । गृत्स॑म् । क॒विम् । वि॒श्व॒ऽविद॑म् । अमू॑रम् । सः । नः॒ । य॒क्ष॒त् । दे॒वऽता॑ता । यजी॑यान् । रा॒ये । वाजा॑य । व॒न॒ते॒ । म॒घानि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं होतारं प्र वृणे मियेधे गृत्सं कविं विश्वविदममूरम्। स नो यक्षद्देवताता यजीयान्राये वाजाय वनते मघानि॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम्। होतारम्। प्र। वृणे। मियेधे। गृत्सम्। कविम्। विश्वऽविदम्। अमूरम्। सः। नः। यक्षत्। देवऽताता। यजीयान्। राये। वाजाय। वनते। मघानि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञ में होता के समान नायक का वर्णन।
भावार्थ -
(मियेधे) मेध्य अर्थात् पवित्र यज्ञ में (अग्निं होतारं) ज्ञानवान् आहुतिदाता को जिस प्रकार वरण किया जाता है उसी प्रकार मैं प्रजाजन (मिमेध्ये) शत्रुओं को हनन करने के कार्य, संग्राम के निमित्त (होतारं) योग्य दान, ऐश्वर्य य अधिकार देने वाले (गृत्सं) ऐश्वर्य प्राप्त करने के इच्छुक, लोकैषणा और वित्तैषणा से युक्त और (गृत्सं) उत्तम उपदेश देने हारे, (कविं) सबसे उत्तम, बुद्धिमान् (विश्वविदम्) समस्त राज्यकार्यों को जानने वाले, (अमूरम्) संकट, विपत्तिकाल में मोह को प्राप्त न होने वाले, (अग्निं प्रवृणे) अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष को उत्तम पढ़ पर वरण करता हूं। (सः) वह (यजीयान्) सबसे बड़ा दानी सबसे अधिक आदर, संगति या परस्पर सख्य, संगठन करने हारा पुरुष (देवताता) विद्वानों और वीर पुरुषों को (यक्षत्) एकत्र कर संगति करे, उनको व्यवस्थित करे और वह (राये) ऐश्वर्य और (वाजाय) बल या संग्राम के विजय के लिये (मघानि) नाना उत्तम धन (वनते) प्रदान करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
कुशिकपुत्रो गाथी ऋषिः॥ अग्निर्देवता। छन्दः- १ त्रिष्टुप्। २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ स्वराट् पङ्क्तिः॥ स्वरः–१, २, ४, ५ धैवतः। ३ पञ्चमः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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