ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
प्र ते॑ अग्ने ह॒विष्म॑तीमिय॒र्म्यच्छा॑ सुद्यु॒म्नां रा॒तिनीं॑ घृ॒ताची॑म्। प्र॒द॒क्षि॒णिद्दे॒वता॑तिमुरा॒णः सं रा॒तिभि॒र्वसु॑भिर्य॒ज्ञम॑श्रेत्॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । ह॒विष्म॑तीम् । इ॒य॒र्मि॒ । अच्छ॑ । सु॒ऽद्यु॒म्नाम् । रा॒तिनी॑म् । घृ॒ताची॑म् । प्र॒ऽद॒क्षि॒णित् । दे॒वता॑तिम् । उ॒रा॒णः । सम् । रा॒तिऽभिः॑ । वसु॑ऽभिः । य॒ज्ञम् । अ॒श्रे॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते अग्ने हविष्मतीमियर्म्यच्छा सुद्युम्नां रातिनीं घृताचीम्। प्रदक्षिणिद्देवतातिमुराणः सं रातिभिर्वसुभिर्यज्ञमश्रेत्॥
स्वर रहित पद पाठप्र। ते। अग्ने। हविष्मतीम्। इयर्मि। अच्छ। सुऽद्युम्नाम्। रातिनीम्। घृताचीम्। प्रऽदक्षिणित्। देवतातिम्। उराणः। सम्। रातिऽभिः। वसुऽभिः। यज्ञम्। अश्रेत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
विषय - गृहाश्रम के समान राज्याश्रम का निर्वाह। पक्षान्तर में आचार्यकुल का वर्णन।
भावार्थ -
हे (अग्ने) ज्ञान से युक्त ! हे तेजस्विन् ! (ते) तुझे मैं (हविष्मतीम्) उत्तम उपादेय गुणों अन्नादि समृद्धि से युक्त, (सुद्युम्नांम्) शुभ ऐश्वर्य से युक्त, (रातिनीम्) दिये नाना पदार्थों से युक्त (घृताचीम्) तेजस्विनी, विद्वान् तेजस्वी युवा के हाथ उत्तम कन्या के समान उत्तम राष्ट्र प्रजा को (अच्छम प्र इयर्मि) तेरे सन्मुख प्रस्तुत करता हूं। और (उराणः) जिस प्रकार अधिक प्राणवान्, बलवान् युवा पुरुष अग्नि की प्रदक्षिणा करके (रातिभिः वसुभिः) उत्तम दान योग्य ऐश्वर्यों सहित (देवतातिम् ताम्) कामनाशील स्त्री को प्राप्त कर (यज्ञम् सम् अश्रेत्) उसके साथ संगतिकारक यज्ञ अर्थात् परस्पर दान प्रतिदान के व्यवहार और मैत्रीभाव को सेवता है उसी प्रकार हे अग्ने ! तू भी (प्रदक्षिणित्) उत्तम बलयुक्त मार्ग से जाता हुआ (उराणः) अति बलवान् और बहुत यज्ञवान् होकर (रातिभिः) दानशील, एवं वसने वाले प्रजाजनों वा देने योग्य ऐश्वर्यों से हित (यज्ञं) परस्पर के लेने देने के व्यवहार को (सम् अश्रेत्) चला, स्थापित कर। शिष्य और आचार्य पक्ष में—हे अग्ने विद्वन् ! मैं शिष्य तुझे उत्तम धन ऐश्वर्य से युक्त, अन्न से सम्पन्न, जल से युक्त लक्ष्मी प्रस्तुत करता हूं। इस प्रकार प्रदक्षिणा करके (उराणः) बहुत सी सेवा करने वाला शिष्यजन (देवतातिम्) देवतुल्य, या ज्ञानदाता (यज्ञं) पूज्य गुरु को (एतिभिः वसुभिः) इसी प्रकार देने वाले अन्ते वासियों के साथ या दान करने योग्य ऐश्वर्यों के साथ (सम् अत्) सेवन करे उसका आश्रय ले।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
कुशिकपुत्रो गाथी ऋषिः॥ अग्निर्देवता। छन्दः- १ त्रिष्टुप्। २, ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ स्वराट् पङ्क्तिः॥ स्वरः–१, २, ४, ५ धैवतः। ३ पञ्चमः॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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