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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निर्वैश्वानरः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    वै॒श्वा॒न॒राय॑ धि॒षणा॑मृता॒वृधे॑ घृ॒तं न पू॒तम॒ग्नये॑ जनामसि। द्वि॒ता होता॑रं॒ मनु॑षश्च वा॒घतो॑ धि॒या रथं॒ न कुलि॑शः॒ समृ॑ण्वति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒राय॑ । धि॒षणा॑म् । ऋ॒त॒ऽवृधे॑ । घृ॒तम् । न । पू॒तम् । अ॒ग्नये॑ । ज॒ना॒म॒सि॒ । द्वि॒ता । होता॑रम् । मनु॑षः । च॒ । वा॒घतः॑ । धि॒या । रथ॑म् । न । कुलि॑शः । सम् । ऋ॒ण्व॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानराय धिषणामृतावृधे घृतं न पूतमग्नये जनामसि। द्विता होतारं मनुषश्च वाघतो धिया रथं न कुलिशः समृण्वति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानराय। धिषणाम्। ऋतऽवृधे। घृतम्। न। पूतम्। अग्नये। जनामसि। द्विता। होतारम्। मनुषः। च। वाघतः। धिया। रथम्। न। कुलिशः। सम्। ऋण्वति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (अग्नये पूतं घृतं न) अग्नि को बढ़ाने के लिये जिस प्रकार पवित्र घृत को तैयार करते हैं उसी प्रकार (ऋत-वृधे) सत्य न्यायाचरण को बढ़ाने वाले (वैश्वानराय) सब मनुष्यों के बीच में सबके नायक रूप से विराजमान होने योग्य (अग्नये) अग्रणी, प्रधान पुरुष को बढ़ाने और उत्पन्न करने के लिये हम (धिषणाम्) उत्तम प्रगल्भ बुद्धि और अधिष्टातृ रूप से भोगने योग्य पदवी को (जनामसि) उत्पन्न करें । (मनुषः) सब साधारण मनुष्य और (वाघतः) विद्वान् पुरुष (द्विता ) दोनों वर्ग उस (होतारं) राष्ट्रपति पद को स्वीकार करने वाले नायक को (कुलिशः रथं न) रथको औजार के समान (सम् ऋण्वति ) अच्छी प्रकार तैयार करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्वैश्वानरो देवता॥ छन्दः–१, ३, १० जगती। २, ४, ६, ८, ९, ११ विराड् जगती। ५, ७, १२, १३, १४, १५ निचृज्जगती च ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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