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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अग्ने॒ इन्द्र॑श्च दा॒शुषो॑ दुरो॒णे सु॒ताव॑तो य॒ज्ञमि॒होप॑ यातम्। अम॑र्धन्ता सोम॒पेया॑य देवा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । इन्द्रः॑ । च॒ । दा॒शुषः॑ । दु॒रो॒णे । सु॒तऽव॑तः । य॒ज्ञम् । इ॒ह । उप॑ । या॒त॒म् । अम॑र्धन्ता । सो॒म॒ऽपेया॑य । दे॒वा॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने इन्द्रश्च दाशुषो दुरोणे सुतावतो यज्ञमिहोप यातम्। अमर्धन्ता सोमपेयाय देवा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। इन्द्रः। च। दाशुषः। दुरोणे। सुतऽवतः। यज्ञम्। इह। उप। यातम्। अमर्धन्ता। सोमऽपेयाय। देवा॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 25; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 25; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! तू (इन्द्रः च) और ऐश्वर्यवान् वा सूर्य के समान अज्ञान का नाशक और शत्रुपक्ष का दलन करने वाला वीर पुरुष दोनों ही (अमर्धन्ता) एक दूसरे का परस्पर नाश या घात-उपधात न करते हुए (देवा) सत्य के प्रकाशक, कामना और कान्ति से युक्त होकर (दाशुषः) दानशील, करप्रद, वा आत्मसमर्पक (सुतवतः) ऐश्वर्य युक्त, समृद्ध प्रजाजन के (दुरोणे) गृह में (सोमपेयाय) ऐश्वर्य के पान अर्थात् उत्तम रीति से प्राप्ति और सेवन के लिये (इह) यहां (यज्ञम्) परस्पर प्रेमभाव और संगति और परस्पर लेने देने के व्यवहार को (उप यातम्) प्राप्त हों। और ज्ञान, प्रेम और ऐश्वर्य की वृद्धि करें। (२) इसी प्रकार उपदेशक, अध्यापक जन (सुतवतः) दानशील पुत्रवान् गृहस्थों के घर में (सोमपेयाय) ज्ञान का पान कर। और (सोमपेयाय) उत्तम शिष्य को प्राप्त कर उसको ब्रह्मचर्यादि व्रत पालन कराने के लिये आवें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ १, २, ३, ४ अग्निः। ५ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः- ९, निचृद्नुष्टुप्। २ अनुष्टुप्। ३, ४, ५ भुरिक् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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