ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - वैश्वानरः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
वै॒श्वा॒न॒रं मन॑सा॒ग्निं नि॒चाय्या॑ ह॒विष्म॑न्तो अनुष॒त्यं स्व॒र्विद॑म्। सु॒दानुं॑ दे॒वं र॑थि॒रं व॑सू॒यवो॑ गी॒र्भी र॒ण्वं कु॑शि॒कासो॑ हवामहे॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒रम् । मन॑सा । अ॒ग्निम् । नि॒ऽचाय्य॑ । ह॒विष्म॑न्तः । अ॒नु॒ऽस॒त्यम् । स्वः॒ऽविद॑म् । सु॒ऽदानु॑म् । दे॒वम् । र॒थि॒रम् । व॒सु॒ऽयवः॑ । गीः॒ऽभिः । र॒ण्वम् । कु॒शि॒कासः॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरं मनसाग्निं निचाय्या हविष्मन्तो अनुषत्यं स्वर्विदम्। सुदानुं देवं रथिरं वसूयवो गीर्भी रण्वं कुशिकासो हवामहे॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानरम्। मनसा। अग्निम्। निऽचाय्य। हविष्मन्तः। अनुऽसत्यम्। स्वःऽविदम्। सुऽदानुम्। देवम्। रथिरम्। वसुऽयवः। गीःऽभिः। रण्वम्। कुशिकासः। हवामहे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - वैश्वानर अग्नि, विद्वान्, और परमेश्वर।
भावार्थ -
जिस प्रकार (देवं वैश्वानरं अग्निं हविष्मन्तः गीर्भिः हवन्ते) प्रकाशमान, सबके हितकारी अग्नि को यज्ञ चरु वाले ऋत्विग् लोग प्राप्त कर उसे आहुति देते हैं उसी प्रकार हम (कुशिकासः) सत्य का उपदेश करने हारे विद्वान् जन और शत्रु को ललकारने वाले वीरजन (वसूयवः) आचार्य के अधीन निवास करने वाले ब्रह्मचारी होने की इच्छा करते हुए वा ऐश्वर्यों की कामना करते हुए (वैश्वानरं) सबको उत्तम मार्ग में चलाने वाले, (अनु सत्यम्) सदा सत्य व्यवहार का अनुसरण करने वाले (स्वर्विदम्) स्वयं सुख, प्रकाश और प्रताप को प्राप्त करने और अन्यों को सुख प्राप्त कराने हारे, (सुदानुं) उत्तम दानशील, शत्रुभञ्जक,(देवं) तेजस्वी, ज्ञानप्रकाशक, विजिगीषु (रथिरं) रमणीय ज्ञानवान् वा स्थादि के स्वामी, (रण्वं) उपदेष्टा और रण में प्रयाण कुशल, (अग्निम्) अग्रणी, ज्ञानवान् पुरुष एवं नायक पुरुष को (मनसा) चित्त से और उत्तम यन्त्र बल से (निचाय्य) पूजित कर वा अलंकृत करके (हविष्मन्तः) बहुत से देने योग्य उपहार पदार्थों को लिये हुए, (गीर्भिः) वाणियों द्वारा (हवामहे) उसे प्राप्त हों और अपना गुरु व नायक स्वीकार करें। (२) परमेश्वर भी रमणीयस्वरूप वा रसस्वरूप होने से ‘रथिर’ है। हम प्रेम भक्ति से युक्त होकर वाणियों द्वारा उसकी स्तुति करें।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्रः। ७ आत्मा ऋषिः॥ १-३ वैश्वानरः। ४-६ मरुतः। ७, ८ अग्निरात्मा वा। ९ विश्वामित्रोपाध्यायो देवता॥ छन्दः- १—६ जगती। ७—९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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