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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्रं॑ म॒तिर्हृ॒द आ व॒च्यमा॒नाच्छा॒ पतिं॒ स्तोम॑तष्टा जिगाति। या जागृ॑विर्वि॒दथे॑ श॒स्यमा॒नेन्द्र॒ यत्ते॒ जाय॑ते वि॒द्धि तस्य॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । म॒तिः । हृ॒दः । आ । व॒च्यमा॑ना । अच्छ॑ । पति॑म् । स्तोम॑ऽतष्टा । जि॒गा॒ति॒ । या । जागृ॑विः । वि॒दथे॑ । श॒स्यमा॑ना । इन्द्र॑ । यत् । ते॒ । जाय॑ते । वि॒द्धि । तस्य॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं मतिर्हृद आ वच्यमानाच्छा पतिं स्तोमतष्टा जिगाति। या जागृविर्विदथे शस्यमानेन्द्र यत्ते जायते विद्धि तस्य॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। मतिः। हृदः। आ। वच्यमाना। अच्छ। पतिम्। स्तोमऽतष्टा। जिगाति। या। जागृविः। विदथे। शस्यमाना। इन्द्र। यत्। ते। जायते। विद्धि। तस्य॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    जिस प्रकार (वच्यमाना) उत्तम वचनों से प्रशंसित स्त्री (पति) पति को प्राप्त होती और उसी के गुणानुवाद करती है, उसी प्रकार (स्तोमतष्टा) स्तुति- मन्त्रों द्वारा सु-अलंकृत (वच्यमाना) मुख से उच्चारण करने योग्य (मतिः) स्तुति और प्रज्ञा (अच्छ) अपने लक्ष्यभूत (पतिम्) सर्वपालक स्वामी परमेश्वर को (जिगाति) प्राप्त होती और उसी के गुणानुवाद करती है। (या) जो (विदथे जागृविः) उत्सुक परिलाभ के निमित्त उत्सुक जागृत प्रियतमा के समान ही (विदथे) लक्ष्य रूप प्रभु की प्राप्ति और ज्ञान के निमित्त (शस्यमाना) गुरु द्वारा उपदेश की जाती है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! स्वामिन् ! (यत् ते जायते तस्य विद्धि) जिस प्रकार जो बाद में अपनी हो जाती है उत्तम पुरुष उसी को पत्नी रूप से प्राप्त करता है, अपना जानता है उसी प्रकार हे स्वामिन् ! (ते यत् जायते) तेरे ही गुण वर्णन के लिये जो स्तुति और मति (हृदः) हृदय से हो जाती है (तस्य विद्धि) तू उसे जान और स्वीकार कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत्त्रिष्टुप २,८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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