ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
दि॒वश्चि॒दा पू॒र्व्या जाय॑माना॒ वि जागृ॑विर्वि॒दथे॑ श॒स्यमा॑ना। भ॒द्रा वस्त्रा॒ण्यर्जु॑ना॒ वसा॑ना॒ सेयम॒स्मे स॑न॒जा पित्र्या॒ धीः॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । चि॒त् । आ । पू॒र्व्या । जाय॑माना । वि । जागृ॑विः । वि॒दथे॑ शस्यमा॑ना । भ॒द्रा । व॒स्त्रा॒णि । अर्जु॑ना । वसा॑ना । सा । इ॒यम् । अ॒स्मे इति॑ । स॒न॒ऽजा । पित्र्या॑ । धीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवश्चिदा पूर्व्या जायमाना वि जागृविर्विदथे शस्यमाना। भद्रा वस्त्राण्यर्जुना वसाना सेयमस्मे सनजा पित्र्या धीः॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। चित्। आ। पूर्व्या। जायमाना। वि। जागृविः। विदथे शस्यमाना। भद्रा। वस्त्राणि। अर्जुना। वसाना। सा। इयम्। अस्मे इति। सनऽजा। पित्र्या। धीः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
विषय - उत्तम पत्नीवत् वेदवाणी का वर्णन।
भावार्थ -
जिस प्रकार स्त्री (दिवः चित्) पति की कामना से (आजायमाना) वह पूर्व विद्वानों से संस्कृत होकर ‘जाया’ हो जाती है और वह (शस्यमाना) पति के गुणों के सम्बन्ध में सखियों द्वारा कही गयी ( विदथे जागृविः) पति को प्राप्त करने के निमित्त, जागती-सी रहती है, उत्सुकता के कारण निद्रित नहीं होती और वह जिस प्रकार (अर्जुना भद्रा वस्त्राणि) श्वेत, शुद्ध, सुखकारक, कल्याणकारक सुन्दर वस्त्रों को धारण करती है और वह (सनजा) दानपूर्वक दूसरे की होकर भी (पित्र्या) विवाहकर्त्ता के पिता माता की हितकारिणी और (धीः) विवाहकर्त्ता के द्वारा धारण पोषण करने योग्य हो जाती है। उसी प्रकार (पूर्व्या) हमसे पूर्व के विद्वानों से प्रकट हुई। (दिवः चित्) सूर्य से उषा के समान, ज्ञानप्रकाश से (आजायमाना) सब प्रकार से प्रकट होती हुई (विदथे) इष्ट देव के प्राप्त करने के निमित्त वा यज्ञ में (वि शस्यमाना) विविध प्रकार से स्तुति की जाती हुई (भद्रा) अति कल्याणकारक, सुखप्रद (अर्जुना) दोषरहित (वस्त्रादि) आच्छादक छन्दों को धारण करती हुई (सनजा) सनातन परम पुरुष से उत्पन्न हुई (पित्र्या) माता पिता और वाणी के पालक गुरुजनों में स्थित (सा इयं) वह यह (धीः) धारण करने योग्य वाणी और सन्मति (अस्मे) हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत्त्रिष्टुप २,८ भुरिक् पङ्क्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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