ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
स॒त्तो होता॑ न ऋ॒त्विय॑स्तिस्ति॒रे ब॒र्हिरा॑नु॒षक्। अयु॑ज्रन्प्रा॒तरद्र॑यः॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्तः । होता॑ । नः॒ । ऋ॒त्वियः॑ । ति॒स्ति॒रे । ब॒र्हिः । आ॒नु॒षक् । अयु॑ज्रन् । प्रा॒तः । अद्र॑यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्तो होता न ऋत्वियस्तिस्तिरे बर्हिरानुषक्। अयुज्रन्प्रातरद्रयः॥
स्वर रहित पद पाठसत्तः। होता। नः। ऋत्वियः। तिस्तिरे। बर्हिः। आनुषक्। अयुज्रन्। प्रातः। अद्रयः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
विषय - राजा राष्ट्र की वृद्धि करे।
भावार्थ -
(ऋत्वियः होता) जिस प्रकार होता, यज्ञकर्त्ता ऋतु अनुसार यज्ञ करने वाले (आनुषक् बर्हिः स्तृणाति) साथ २ लगे कुशा बिछा देता है उसी प्रकार (सत्तः) उच्च सिंहासन पर विराजता हुआ (होता) राष्ट्र को अपने अधीन लेवे, अधीनस्थ भृत्यों को वेतनादि देने वाला पुरुष भी (ऋत्वियः) उत्तम ‘ऋतु’ अर्थात् ज्ञान, राजसभा के सदस्यों और राजभ्रातरों के बीच में मुख्य होकर (आनुषक्) अपने अनुकूल होकर अपने से प्रेमभाव से बद्ध होकर (बर्हिः) वृद्धिशील प्रजाजनों वा राष्ट्र को (तिस्तिरे) विस्तृत करे, बढ़ावे। (प्रातः) प्रातः, प्रारम्भ में ही (अद्रयः) अदि के समान अविचल, निर्भय और मेघवत् उदार और सिद्धहस्त पुरुष (अयुज्रन) नियुक्त हों, राष्ट्र-कार्य में योग दें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ यवमध्या गायत्री। २, ३, ५,९ गायत्री । ४, ७, ८ निचृद्गायत्री। ६ विराड्गायत्री। षड्जः स्वरः॥
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