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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स॒त्तो होता॑ न ऋ॒त्विय॑स्तिस्ति॒रे ब॒र्हिरा॑नु॒षक्। अयु॑ज्रन्प्रा॒तरद्र॑यः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्तः । होता॑ । नः॒ । ऋ॒त्वियः॑ । ति॒स्ति॒रे । ब॒र्हिः । आ॒नु॒षक् । अयु॑ज्रन् । प्रा॒तः । अद्र॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्तो होता न ऋत्वियस्तिस्तिरे बर्हिरानुषक्। अयुज्रन्प्रातरद्रयः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्तः। होता। नः। ऋत्वियः। तिस्तिरे। बर्हिः। आनुषक्। अयुज्रन्। प्रातः। अद्रयः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यः सत्तो होतर्त्विय आनुषक् सन्नोऽस्मान् बर्हिरद्र्यः प्रातरयुज्रन्निव तिस्तिरे ते क्रियायज्ञं कर्त्तुमर्हन्ति॥२॥

    पदार्थः

    (सत्तः) निषण्णः (होता) आदाता (नः) अस्मान् (ऋत्वियः) य ऋतुमर्हति सः (तिस्तिरे) स्तृणात्याच्छादयति (बर्हिः) उत्तममासनं वस्तु वा (आनुषक्) य आनुकूल्यं सचति समवैति सः (अयुज्रन्) युञ्जन्ति (प्रातः) (अद्रयः) मेघाः ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रभातकालीना मेघाः सूर्य्यप्रकाशमाच्छाद्य छायां जनयन्ति तथैव क्रियाविदो जना वस्त्रादिपदार्थैः शरीराण्याच्छाद्याऽऽनुकूल्येन सुखं जनयन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    जो (सत्तः) बैठा हुआ (होता) ग्रहण करनेवाला और (ऋत्वियः) जो ऋतु को योग्य होता वा (आनुषक्) अनुकूलता के साथ मिलता ये (नः) हम लोगों के लिये (बर्हिः) उत्तम आसन वा वस्तु को (अद्रयः) मेघों के सदृश (प्रातः) प्रातःकाल में (अयुज्रन्) युक्त करते हैं और (तिस्तिरे) वस्त्रों से आच्छादन करते हैं, वे क्रियारूप यज्ञ करने को योग्य हैं ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रभातकाल से मेघ सूर्य्य के प्रकाश का आच्छादन करके छाया को उत्पन्न करते हैं, वैसे ही क्रियाओं को जाननेवाले लोग वस्त्र आदि पदार्थों से शरीरों को ढाँप के अनुकूलता से सुख को उत्पन्न करते हैं ॥२॥

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    विषय

    प्रभुभक्त का जीवन

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! यह आपका भक्त (होता न) = होता की तरह (सत्तः) = इस शरीरगृह में स्थित हुआ है। हमें चाहिए कि हम इस मानुष देह को प्राप्त करके होता बनें-सदा दानपूर्वक अदन करनेवाले बनें। [२] यह आपका भक्त (ऋत्वियः) = प्रत्येक कार्य को ऋतु के अनुसार करनेवाला है- समय पर सब कार्यों को करता है। इस नियमित कार्यक्रमवाले पुरुष से (आनुषक्) = निरन्तर (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय (तिस्तिरे) = आस्तीर्ण किया गया है। इस प्रकार प्रभु भक्त [क] होता बनता है, [ख] समयानुसार कार्य करता है, [ग] हृदय को वासनाशून्य बनाता है। [३] ये (अद्रयः) = [those who adore] उपासना करनेवाले लोग (प्रातः) = उषाकाल में ही (अयुज्रन्) = [युजिर् योगे] योग का अभ्यास करते हैं। उषाकाल की उपासना इन्हें वह शक्ति प्राप्त कराती है, जिससे कि वे दिनभर के कार्यक्रम को अनथकरूप से करने में समर्थ होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम [क] दानपूर्वक अदन करनेवाले हों, [ख] समयानुसार कार्य करें, [ग] हृदय को वासनाशून्य बनाएँ, [घ] उषाकाल में प्रतिदिन योगाभ्यास करें।

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    विषय

    राजा राष्ट्र की वृद्धि करे।

    भावार्थ

    (ऋत्वियः होता) जिस प्रकार होता, यज्ञकर्त्ता ऋतु अनुसार यज्ञ करने वाले (आनुषक् बर्हिः स्तृणाति) साथ २ लगे कुशा बिछा देता है उसी प्रकार (सत्तः) उच्च सिंहासन पर विराजता हुआ (होता) राष्ट्र को अपने अधीन लेवे, अधीनस्थ भृत्यों को वेतनादि देने वाला पुरुष भी (ऋत्वियः) उत्तम ‘ऋतु’ अर्थात् ज्ञान, राजसभा के सदस्यों और राजभ्रातरों के बीच में मुख्य होकर (आनुषक्) अपने अनुकूल होकर अपने से प्रेमभाव से बद्ध होकर (बर्हिः) वृद्धिशील प्रजाजनों वा राष्ट्र को (तिस्तिरे) विस्तृत करे, बढ़ावे। (प्रातः) प्रातः, प्रारम्भ में ही (अद्रयः) अदि के समान अविचल, निर्भय और मेघवत् उदार और सिद्धहस्त पुरुष (अयुज्रन) नियुक्त हों, राष्ट्र-कार्य में योग दें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ यवमध्या गायत्री। २, ३, ५,९ गायत्री । ४, ७, ८ निचृद्गायत्री। ६ विराड्गायत्री। षड्जः स्वरः॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे प्रातःकालीन मेघ सूर्याच्या प्रकाशाला आच्छादित करून छाया उत्पन्न करतात तसेच शिल्प इ. क्रिया जाणणारे लोक वस्त्र इत्यादी पदार्थांनी शरीराला आच्छादित करून अनुकूलतेने सुख उत्पन्न करतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The yajaka is seated for our yajna according to the season, the seats are fixed and spread in order, the stones have been used for the morning libations.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of Agni is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The acceptor of noble virtues and performer of the Yajna is properly seated on the proper occasion and on Asana (seat made of grass etc.). Like the clouds covering in the sky in the morning, all thing are ready. Those who know all this, can perform the practical Yajna.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the morning clouds cover the light of the Sun and create darkness, in the same manner, those who are experts in performing practical Yajnas, over the bodies (of the people by manufacturing good textiles. Ed.) with clouds etc. and being agreeable, cause of happiness.

    Foot Notes

    (होता) अदाता a =Receiver or acceptor of noble virtues. (बर्हि) उत्तमासन वस्तु वा = Good Asana or seat. (तिस्तरे) स्तृणात्याच्छादयति = Covers.

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