ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 41/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
मारे अ॒स्मद्वि मु॑मुचो॒ हरि॑प्रिया॒र्वाङ् या॑हि। इन्द्र॑ स्वधावो॒ मत्स्वे॒ह॥
स्वर सहित पद पाठमा । आ॒रे । अ॒स्मत् । वि । मु॒मु॒चः॒ । हरि॑ऽप्रिय । आ॒र्वाङ् । या॒हि॒ । इन्द्र॑ । स्व॒धा॒ऽवः॒ । मत्स्व॑ । इ॒ह ॥
स्वर रहित मन्त्र
मारे अस्मद्वि मुमुचो हरिप्रियार्वाङ् याहि। इन्द्र स्वधावो मत्स्वेह॥
स्वर रहित पद पाठमा। आरे। अस्मत्। वि। मुमुचः। हरिऽप्रिय। आर्वाङ्। याहि। इन्द्र। स्वधाऽवः। मत्स्व। इह॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 41; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे हरिप्रियेन्द्र ! स्वधावस्त्वमस्मदारे मा वि मुमुचोऽर्वाङ् याहीह मत्स्व ॥८॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (आरे) समीपे दूरे वा (अस्मत्) (वि) (मुमुचः) मोचयेः (हरिप्रिय) यो हरीन् हरणशीलान् प्रीणाति तत्सम्बुद्धौ (अर्वाङ्) अर्वाचीनं देशं गच्छन् (याहि) गच्छ (इन्द्र) ऐश्वर्य्ययुक्त (स्वधावः) बह्वन्नादिप्राप्त (मत्स्व) आनन्द (इह) अस्मिञ्जगति ॥८॥
भावार्थः
हे मित्रजना ! यूयमस्मद्दूरे समीपे वा स्थिताः सन्तोऽस्माकं प्रियमावरत प्रीत मा त्यजत वयमपि युष्मासु तथा वर्त्तेम ह्येवं परस्परं वर्त्तमानं कृत्वेह सुखिनो भवेम ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (हरिप्रिय) हरनेवालों को प्रसन्न करनेवाले (इन्द्र) ऐश्वर्य्य में युक्त (स्वधावः) बहुत अन्नादि वस्तुओं से पूर्ण आप (अस्मत्) हम लोगों से (आरे) समीप वा दूर देश में (मा) मत (वि, मुमुचः) त्याग करिये (अर्वाङ्) नीचे के स्थान को जाते हुए (याहि) जाइये और (इह) इस संसार में (मत्स्व) आनन्द करिये ॥८॥
भावार्थ
हे मित्रजनों ! आप लोग हम लोगों से दूर वा समीप स्थान में वर्त्तमान हुए हम लोगों का कल्याण करो और प्रीति का त्याग मत करो और हम लोग भी आप लोगों में ऐसा ही वर्त्ताव करें, इस प्रकार परस्पर वर्त्ताव करके इस संसार में सुखी होवें ॥८॥
विषय
प्रभु के समीप
पदार्थ
[१] हे (हरिप्रिय) = भक्तों के दुःख हरण करनेवाले [हरि] तथा उन्हें उत्तमोत्तम वसुओं [धनों] से प्रीणित करनेवाले प्रभो ! [प्रिय] आप (अर्वाङ् याहि) = हमें आभिमुख्येन प्राप्त होइये । (अस्मद् आरे) = हमारे से दूर ही (मा) = मत (विमुमुचः) = अपने रथ के घोड़ों को खोलिए । वस्तुतः प्रभु तो सर्वत्र हैं ही। उन्हें किसी रथ से आना हो, ऐसी बात नहीं। पर काव्यमय भाषा में ऐसा प्रयोग किया गया है कि प्रभु का रथ हमारे घर पर ही पहुँचे, दूर ही उसके अश्व न खोल दिये जाएँ। [२] हे (स्वधा-वः) = आत्मधारण शक्तिवाले प्रभो ! (इह) = यहाँ हमारे हृदय देश में (मत्स्व) = आप आनन्द से स्थित होइये । हम आपका स्मरण करें और आपके आधार में आनन्द का अनुभव करें।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु से दूर न हों। उस सर्वाधार प्रभु के आधार में आनन्द का अनुभव करें।
विषय
उत्तम पुरुष को नीच कार्य में लगाने का निषेध।
भावार्थ
हे (हरिप्रिय) अश्वों के प्रिय ! (अस्मत्) हमें (आरे मा वि मुमुचः) दूर वा पास त्याग मत कर। (अर्वाङ् याहि) तू आगे बढ़। हे ऐश्वर्यवन् ! हे (स्वधावः) स्वयं राष्ट्र को धारण करने की शक्ति के स्वामिन् ! तू (इह मत्स्व) इसी राष्ट्र में हर्षित हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ यवमध्या गायत्री। २, ३, ५,९ गायत्री । ४, ७, ८ निचृद्गायत्री। ६ विराड्गायत्री। षड्जः स्वरः॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे मित्रांनो! तुम्ही आमच्यापासून दूर किंवा जवळ राहून आमचे कल्याण करा व प्रेमाचा त्याग करू नका. आम्हीही तुमच्याशी अशाच प्रकारचे वर्तन करावे. या प्रकारे परस्पर वागून या जगात सुखी व्हावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord lover of speed and progress, forsake us not, leave us not, go not far away, come hither close to us. Lord self-sufficient and self-refulgent, be here with us. Rejoice.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of Agni is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
○ opulent lover of men! possessing abundant food grains and other things, don't give up love towards us, whether you live far from us or near. Come to us, and be delighted here.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O friends ! whether you are far away from us or near, always do what is pleasing to us. Never deprive us of your love, and let us also reciprocate in the same loving manner. Behaving like this, let us all enjoy happiness.
Foot Notes
(हरिप्रिय) यो हरीन् हरणाशीलान् प्रीणाति तत्सम्बुद्धौ हरय इति मनुष्यनाम (N.G. 2. 3 )= Lover or satisfier of men. (स्वधावः ) बह्वन्नादिप्राप्त । स्वधा इत्यन्ननाम = ( N. G. 2, 7) = Possessor of abundant food grains and other things.
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