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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒जोषा॑ इन्द्र॒ सग॑णो म॒रुद्भिः॒ सोमं॑ पिब वृत्र॒हा शू॑र वि॒द्वान्। ज॒हि शत्रूँ॒रप॒ मृधो॑ नुद॒स्वाथाभ॑यं कृणुहि वि॒श्वतो॑ नः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒ऽजोषाः॑ । इ॒न्द्र॒ । सऽग॑णः । म॒रुत्ऽभिः॑ । सोम॑म् । पि॒ब॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । शू॒र॒ । वि॒द्वान् । ज॒हि । शत्रू॑न् । अप॑ । मृधः॑ । नु॒द॒स्व॒ । अथ॑ । अभ॑यम् । कृ॒णु॒हि॒ । वि॒श्वतः॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सजोषा इन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वृत्रहा शूर विद्वान्। जहि शत्रूँरप मृधो नुदस्वाथाभयं कृणुहि विश्वतो नः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सऽजोषाः। इन्द्र। सऽगणः। मरुत्ऽभिः। सोमम्। पिब। वृत्रऽहा। शूर। विद्वान्। जहि। शत्रून्। अप। मृधः। नुदस्व। अथ। अभयम्। कृणुहि। विश्वतः। नः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (इन्द्र) ऐश्वर्य को प्राप्त कराने और करने वाले ! शत्रु हिंसक सेनापते ! राजन् ! तू (सगणः) अपने सैन्यगणों सहित और (मरुद्भिः) वायु के समान तीव्र वेग से वृक्षों के समान शत्रुगणों को कंपा देने वाले वीर पुरुषों के साथ (सजोषाः) समान प्रीतिमान् होकर (सोमं) ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र को (पिब) पान, उपभोग एवं पालन कर। हे (शूर) शूरवीर ! शत्रुओं के हिंसक ! तू (वृत्रहा) मेघ के नाश करने वाले सूर्य के समान बाधक विघ्नों और बढ़ते फैलते हुए शत्रु का नाश करने वाला और (विद्वान्) उचित कर्मों, कर्त्तव्यों और नाना विद्याओं को जानने वाला होकर (शत्रून्) शत्रुओं को (जहि) मार, दण्डित कर, (मृधः) संग्रामों और संग्रामकारियों को (अप नुदस्व) दूर भगा। और (नः) हमारे लिये (विश्वतः) सब प्रकार और सब तरफ़ से (अभयं कृणुहि) भयरहित कर।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः– १-३ निचृत्त्रिष्टुप्। ४ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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