ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 57/ मन्त्र 5
ऋषिः - विश्वामित्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
या ते॑ जि॒ह्वा मधु॑मती सुमे॒धा अग्ने॑ दे॒वेषू॒च्यत॑ उरू॒ची। तये॒ह विश्वाँ॒ अव॑से॒ यज॑त्रा॒ना सा॑दय पा॒यया॑ चा॒ मधू॑नि॥
स्वर सहित पद पाठया । ते॒ । जि॒ह्वा । मधु॑ऽमती । सु॒ऽमे॒धाः । अग्ने॑ । दे॒वेषु॑ । उ॒च्यते॑ । उ॒रू॒ची । तया॑ । इ॒ह । विश्वा॒न् । अव॑से । यज॑त्रान् । आ । सा॒द॒य॒ । पा॒यया॑ । च॒ । मधू॑नि ॥
स्वर रहित मन्त्र
या ते जिह्वा मधुमती सुमेधा अग्ने देवेषूच्यत उरूची। तयेह विश्वाँ अवसे यजत्राना सादय पायया चा मधूनि॥
स्वर रहित पद पाठया। ते। जिह्वा। मधुऽमती। सुऽमेधाः। अग्ने। देवेषु। उच्यते। उरूची। तया। इह। विश्वान्। अवसे। यजत्रान्। आ। सादय। पायया। च। मधूनि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 57; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
विषय - वाणी का सदुपयोग।
भावार्थ -
हे (अग्ने) विद्वान् स्त्री वा पुरुष ! वा हे परमेश्वर ! (या) जो (ते) तेरी (जिह्वा) वाणी और (मधुमती) मधुर वचनों से युक्त (सुमेधा) उत्तम मननशक्ति से युक्त (उरूची) बहुत से ज्ञानों को धारण करने वाली (देवेषु) विद्वान् पुरुषों के बीच में (उच्यते) कही जाती है (तया) उस वाणी और प्रज्ञा से तू (विश्वान्) समस्त (यजत्रान्) पूज्य, सत्संग योग्य पुरुषों को (अवसे) ज्ञान प्राप्त करने और रक्षा के निमित्त (आसादय) प्राप्त कर और उनको (मधूनि) नाना मधुर रसों के समान मधुर वाणी के रस भी (पाय) पान करा।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:- १, ३, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप॥ धैवतः स्वरः॥
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