ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 57/ मन्त्र 6
ऋषिः - विश्वामित्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
या ते॑ अग्ने॒ पर्व॑तस्येव॒ धारास॑श्चन्ती पी॒पय॑द्देव चि॒त्रा। ताम॒स्मभ्यं॒ प्रम॑तिं जातवेदो॒ वसो॒ रास्व॑ सुम॒तिं वि॒श्वज॑न्याम्॥
स्वर सहित पद पाठया । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । पर्व॑तस्यऽइव । धारा॑ । अस॑श्चन्ती । पी॒पय॑त् । दे॒व॒ । चि॒त्रा । ताम् । अ॒स्मभ्य॑म् । प्रऽम॑तिम् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । वसो॒ इति॑ । रास्व॑ । सु॒ऽम॒तिम् । वि॒श्वऽज॑न्याम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
या ते अग्ने पर्वतस्येव धारासश्चन्ती पीपयद्देव चित्रा। तामस्मभ्यं प्रमतिं जातवेदो वसो रास्व सुमतिं विश्वजन्याम्॥
स्वर रहित पद पाठया। ते। अग्ने। पर्वतस्यऽइव। धारा। असश्चन्ती। पीपयत्। देव। चित्रा। ताम्। अस्मभ्यम्। प्रऽमतिम्। जातऽवेदः। वसो इति। रास्व। सुऽमतिम्। विश्वऽजन्याम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 57; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
विषय - नदीवत् वाणी।
भावार्थ -
हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! हे विद्वन् ! तेजस्विन् ! (पर्वतस्य इव धारा) पर्वत से निकलती नदी या मेघ से निकलती धारा या मेघ से निकलती वाणी गर्जना जिस प्रकार (असश्चन्ती) अनासक्त (निःसङ्ग) रहती हुई, (चित्रा) अद्भुत मार्ग से गति करती हुई (पीपयत्) अन्नादि ओषधियों को पुष्ट करती है उसी प्रकार (या) जो (पर्वतस्य) पालन करने वाले, या पर्वो अध्यायों से युक्त ग्रन्थ के समान ज्ञानवान् (ते) तेरी (धारा) ज्ञान धारण करने वाली (चित्रा) आश्चर्यकारिणी अद्भुत वाणी या शुभ मति (पीपयत्) सबको तृप्त करती है (ताम्) उस (प्रमतिं) उत्तम कोटि के ज्ञान से युक्त (विश्व-जन्याम्) समस्त जनों की हितकारिणी (सुमतिं) शुभ मति को या शुभ ज्ञानमयी वाणी को (देव) हे विद्वन् ! हे ज्ञानदातः ! हे (जातवेदः) समस्त उत्पन्न पदार्थों के जानने हारे ! हे (वसो) अपने अधीन प्रजाओं और शिष्यों का बसाने हारे ! तू (अस्मभ्यं रास्व) हमें प्रदान कर। (२) पालक राजा की धारा, वाणी, हम सैनिकों को बलवान् और शुभ ज्ञानयुक्त सर्वजन हितकारिणी हो। इति द्वितीयो वर्गः॥
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:- १, ३, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप॥ धैवतः स्वरः॥
इस भाष्य को एडिट करें