ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 59/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - मित्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
मि॒त्राय॒ पञ्च॑ येमिरे॒ जना॑ अ॒भिष्टि॑शवसे। स दे॒वान्विश्वा॑न्बिभर्ति॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्राय । पञ्च॑ । ये॒मि॒रे॒ । जनाः॑ । अ॒भिष्टि॑ऽशवसे । सः । दे॒वान् । विश्वा॑न् । बि॒भ॒र्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्राय पञ्च येमिरे जना अभिष्टिशवसे। स देवान्विश्वान्बिभर्ति॥
स्वर रहित पद पाठमित्राय। पञ्च। येमिरे। जनाः। अभिष्टिऽशवसे। सः। देवान्। विश्वान्। बिभर्ति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 59; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
विषय - उनके कर्त्तव्य।
भावार्थ -
(अभिष्टिशवसे) सब तरफ़ शासन करने में समर्थ बलशाली (मित्राय) सर्वस्नेही, सर्व रक्षक के लिये ही (पञ्च जनाः) पांचों प्रकार के जन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये प्रजाजन और पांचवां निषाद वर्ग जो राजा द्वारा पदों पर विराजे, ये पांचों वर्ग (येमिरे) उद्यम करें। (सः) वह (देवान् विश्वान्) किरणों को सूर्य के समान, समस्त विद्वानों और वीर विजयोत्सुक वीरों को (बिभर्ति) धारण करता और पालता पोषता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ मित्रा देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३ निचृत्त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् पंक्तिः। ६, ९ निचृद्वायत्री। ७, ८ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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