ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - ऋभवः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
इन्द्रे॑ण याथ स॒रथं॑ सु॒ते सचाँ॒ अथो॒ वशा॑नां भवथा स॒ह श्रि॒या। न वः॑ प्रति॒मै सु॑कृ॒तानि॑ वाघतः॒ सौध॑न्वना ऋभवो वी॒र्या॑णि च॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑ण । या॒थ॒ । स॒ऽरथ॑म् । सु॒ते । सचा॑ । अथो॒ इति॑ । वशा॑नाम् । भ॒व॒थ॒ । स॒ह । श्रि॒या । न । वः॒ । प्र॒ति॒ऽमै । सु॒ऽकृ॒तानि॑ । वा॒घ॒तः॒ । सौध॑न्वनाः । ऋ॒भ॒वः॒ । वी॒र्या॑णि च ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेण याथ सरथं सुते सचाँ अथो वशानां भवथा सह श्रिया। न वः प्रतिमै सुकृतानि वाघतः सौधन्वना ऋभवो वीर्याणि च॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेण। याथ। सऽरथम्। सुते। सचा। अथो इति। वशानाम्। भवथ। सह। श्रिया। न। वः। प्रतिऽमै। सुऽकृतानि। वाघतः। सौधन्वनाः। ऋभवः। वीर्याणि च॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 60; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 4
विषय - सौधन्वन वीर, इन्द्र ऋभुओं का सम्बन्ध।
भावार्थ -
हे (वाधतः) ज्ञान को धारण करने वाले ! (सौधन्वनाः) उत्तम शक्तिसम्पन्न ! हे (ऋभवः) सत्यज्ञान से बहुत अधिक प्रकाशमान विद्वानो ! जिस प्रकार रश्मियां प्रकाशमान सूर्य के साथ जातीं और दीप्तियों की शोभा से युक्त होती हैं। उनके वृष्टि आदि कृत्य और विद्युत आदि बलों का कोई मुकाबला नहीं करता, उसी प्रकार आप लोग (इन्द्रेण) ऐश्वर्यवान् राजा वा ऐश्वर्य के साथ (सरथं) एक समान रथ में, वा रथादि सम्पन्न राज्य सेनादि को प्राप्त कर (सुते) उत्पन्न ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र में (सचा) एक साथ (याथ) प्रयाण करो। (अथो) और (वशानाम्) वश करने वाले, वशी मनुष्यों के बीच वा कान्तिमान् सूर्यादि की (श्रिया) लक्ष्मी, कान्ति और (वः सुकृतानि) तुम्हारे उत्तम कार्यों के और (वीर्याणि च) तुम्हारे वीरोचित कार्यों, बलों और सामर्थ्यों को कोई भी (प्रतिमै न) मुकाबला या परिमाण न कर सके। (२) परमेश्वर के साथ ही इस, ज्ञानाभिषिक्त आत्मा में गमन देह में अपने करो, वशीभूत प्राणों के कान्ति से युक्त होओ, उत्तम कर्म और वीर्य तुम्हारे अप्रतिम हों।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्र ऋषिः॥ ऋभवो देवता॥ छन्दः- १, २, ३ जगती। ४, ५ निचृज्जगती। ६ विराड् जगती। ७ भुरिग्जगती॥ निषादः स्वरः॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
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