ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
ऋषिः - कुमार आत्रेयो वृषो वा जार उभौ वा
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
कु॒मा॒रं मा॒ता यु॑व॒तिः समु॑ब्धं॒ गुहा॑ बिभर्ति॒ न द॑दाति पि॒त्रे। अनी॑कमस्य॒ न मि॒नज्जना॑सः पु॒रः प॑श्यन्ति॒ निहि॑तमर॒तौ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठकु॒मा॒रम् । मा॒ता । यु॒व॒तिः । सम्ऽउ॑ब्धम् । गुहा॑ । बि॒भ॒र्ति॒ । न । द॒दा॒ति॒ । पि॒त्रे । अनी॑कम् । अ॒स्य॒ । न । मि॒नत् । जना॑सः । पु॒रः । प॒श्य॒न्ति॒ । निऽहि॑तम् । अ॒र॒तौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुमारं माता युवतिः समुब्धं गुहा बिभर्ति न ददाति पित्रे। अनीकमस्य न मिनज्जनासः पुरः पश्यन्ति निहितमरतौ ॥१॥
स्वर रहित पद पाठकुमारम्। माता। युवतिः। सम्ऽउब्धम्। गुहा। बिभर्ति। न। ददाति। पित्रे। अनीकम्। अस्य। न। मिनत्। जनासः। पुरः। पश्यन्ति। निऽहितम्। अरतौ ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - माता पुत्र के दृष्टान्त से आचार्य शिष्य राजा और पृथ्वी का वर्णन
भावार्थ -
भा०-आचार्य, शिष्य राजा और पृथिवी का वर्णन माता पुत्र के दृष्टान्त से करते हैं। जिस प्रकार (युवतिः माता) जवान माता (समुब्धं) के सम्पूर्णा़ग (कुमार) बालक को (गुहा) गृह या अपने गर्भ में (बिभर्ति) धारण पोषण करती है और स्नेह वश ( पित्रे न ददाति ) पालन पोषाणार्थ पिता को नहीं देती उसी प्रकार ( माता ) सर्वोत्पादक पृथिवी (कुमारं ) शत्रुजनों को बुरी तरह से मारने वाले (समुब्धम् ) समुन्नत, सर्वाङ्ग पुरुष को (गुहा बिभति) अपने गूढ स्थानों में धारण करती है और उसे ( पित्रे ) पालक पिता वा कृषकादि के अधीन नहीं ( ददाति ) देती, उस प्रकार ( माता ) ज्ञानवान् मातृवत् पूज्य शिष्य को योग्य बना देने वाला आचार्य भी (समुब्धं कुमारं ) अच्छी प्रकार विद्या से पूर्ण कुमार शिष्य को भी ( गुहा बिभर्त्ति ) अपने ही गर्भ के तुल्य सुरक्षित विद्या गर्भ वा अधीनता में धारण करता है, उसको (पित्रे) उसके पालक, माता पिता के हाथ नहीं सौंपता । (अस्य) सुरक्षित राजा और व्रती कुमार के (अनीकम् ) सैन्य बल और तेज को भी (जनासः) साधारण जन ( न मिनत् ) नाश नहीं कर सकते । प्रत्युत वे भी ( अरतौ ) अरमण योग्य, असह्य रूप में संग्रामादि के अवसर या विपत्ति काल में उसको ही (पुरः) आगे अग्रणी में पद पर ( निहितम् ) स्थित ( पश्यन्ति ) देखते हैं ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
कुमार आत्रेयो वृशो वा जार उभौ वा । २, वृशो जार ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्द: – १, ३, ७, ८ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचत्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । १२ निचदतिजगती ॥ द्वादशचं सूक्तम् ॥
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