ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
ऋषिः - बुद्धगविष्ठरावात्रेयी
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अवो॑चाम क॒वये॒ मेध्या॑य॒ वचो॑ व॒न्दारु॑ वृष॒भाय॒ वृष्णे॑। गवि॑ष्ठिरो॒ नम॑सा॒ स्तोम॑म॒ग्नौ दि॒वी॑व रु॒क्ममु॑रु॒व्यञ्च॑मश्रेत् ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठअवो॑चाम । क॒वये॑ । मेध्या॑य । वचः॑ । व॒न्दारु॑ । वृ॒ष॒भाय॑ । वृष्णे॑ । गवि॑ष्ठिरः । नम॑सा । स्तोम॑म् । अ॒ग्नौ । दि॒विऽइ॑व । रु॒क्मम् । उ॒रु॒ऽव्यञ्च॑म् । अ॒श्रे॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवोचाम कवये मेध्याय वचो वन्दारु वृषभाय वृष्णे। गविष्ठिरो नमसा स्तोममग्नौ दिवीव रुक्ममुरुव्यञ्चमश्रेत् ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठअवोचाम। कवये। मेध्याय। वचः। वन्दारु। वृषभाय। वृष्णे। गविष्ठिरः। नमसा। स्तोमम्। अग्नौ। दिविऽइव। रुक्मम्। उरुऽव्यञ्चम्। अश्रेत् ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 6
विषय - missing
भावार्थ -
भा०-हम लोग ( मेध्याय ) पवित्र वा उत्तम अन्नादि सत्कार और सत्संग के योग्य, ( कवये ) क्रान्तदर्शी, ज्ञानवान्, मेधावी, (वृषभाय ) बलवान्, मेघवत् निष्पक्षपात होकर ज्ञान के देने वाले ( वृष्णे ) बलिष्ठ पुरुष के लिये ( वन्दारु वचः ) वन्दनायोग्य वचन नमस्कार आदि सदा ( अवोचाम ) कहा करें। जिस प्रकार ( गविष्ठिरः ) रश्मियों पर स्थित पुरुष (दिवित्र अग्नौ इव स्तोमम् रुक्मम् उरु व्यञ्चम् अत्) आकाश में स्थित सूर्य में उत्तम विशाल विविध दिशागामी प्रकाश को प्रकट करता है उसी प्रकार ( गविष्ठिरः) वेदवाणी के निमित्त स्थिर चित्त होने वाला शिष्य जन (नमसा ) आदरयुक्त वचनों सहित (अग्नौ ) ज्ञानवान्, मार्गदर्शी आचार्य के अधीन रहकर (उरु) विशाल (व्यञ्चम् ) विविध यज्ञों को दर्शाने वाले ( रुक्मम् ) रुचि कर ( स्तोमं ) वेदमन्त्र समूह को ( अत् ) प्राप्त करे ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
बुधगविष्ठिरावात्रेयावृषी ॥ अग्निदेॅवता ॥ छन्द: – १, ३, ४, ६, ११. १२ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ७, १० त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः। ९ पंक्तिः ॥ द्वादशचॅ सूक्तम् ॥
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