ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
ऋषिः - बन्धुः सुबन्धुः श्रुतबन्धुर्विप्रबन्धुश्च गौपयाना लौपयाना वा
देवता - अग्निः
छन्दः - पूर्वार्द्धस्योत्तरार्द्धस्य च भुरिग्बृहती
स्वरः - मध्यमः
अच्छा॑ वो अ॒ग्निमव॑से दे॒वं गा॑सि॒ स नो॒ वसुः॑। रास॑त्पु॒त्र ऋ॑षू॒णामृ॒तावा॑ पर्षति द्वि॒षः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । वः॒ । अ॒ग्निम् । अव॑से । दे॒वम् । गा॒सि॒ । सः । नः॒ । वसुः॑ । रास॑त् । पु॒त्रः । ऋ॒षू॒णाम् । ऋ॒तऽवा॑ । प॒र्ष॒ति॒ । द्वि॒षः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा वो अग्निमवसे देवं गासि स नो वसुः। रासत्पुत्र ऋषूणामृतावा पर्षति द्विषः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ। वः। अग्निम्। अवसे। देवम्। गासि। सः। नः। वसुः। रासत्। पुत्रः। ऋषूणाम्। ऋतऽवा। पर्षति। द्विषः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु परमेश्वर ओर राजा वा नायक से प्रजाओं की प्रार्थना ।
भावार्थ -
भा०—हे विद्वन् ! ( वः ) हमें ( अवसे ) रक्षा करने के लिये ( अग्निम् ) अग्रणी, अग्निवत् तेजस्वी ( देवं ) सर्वप्रकाशक, विजिगीषु, व्यवहारज्ञ पुरुष का ( अच्छ गासि ) अच्छी प्रकार उपदेश कर । (सः) वह (नः) हमारा ( वसुः ) बसाने वाला हो । वह (ऋषूणाम् पुत्रः ) वेदार्थ द्रष्टा विद्वानों के बीच पुत्र के समान, विनयशील वा बहुतों का रक्षक होकर ( ऋतावा ) सत्य न्याय और धन का स्वामी होकर ( रासत् ) धन प्रदान करे । ( द्विष: ) और अप्रीतियुक्त शत्रु जनों को पार करे, उन पर विजय लाभ करे । परमेश्वर वेदार्थ द्रष्टा, आत्मदर्शी बहुत से विद्वानों को सब दुःखों से बचाने वाला होने से उनका 'पुत्र' है ।
टिप्पणी -
पुरु त्रायते इति पुत्रः । निरु० ॥ १
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसूयव आत्रेया ऋषयः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १,८ निचृदनुष्टुप । २,५,६,९ अनुष्टुप्, । ३, ७ विराडनुष्टुप् । ४ भुरिगुष्णिक् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
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