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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 32/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गातुरात्रेयः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    एकं॒ नु त्वा॒ सत्प॑तिं॒ पाञ्च॑जन्यं जा॒तं शृ॑णोमि य॒शसं॒ जने॑षु। तं मे॑ जगृभ्र आ॒शसो॒ नवि॑ष्ठं दो॒षा वस्तो॒र्हव॑मानास॒ इन्द्र॑म् ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॒म् । नु । त्वा॒ । सत्ऽप॑तिम् । पाञ्च॑ऽजन्यम् । जा॒तम् । शृ॒णो॒मि॒ । य॒शस॑म् । जने॑षु । तम् । मे॒ । ज॒गृ॒भ्रे॒ । आ॒ऽशसः॑ । नवि॑ष्ठम् । दो॒षा । वस्तोः॑ । हव॑मानासः । इन्द्र॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकं नु त्वा सत्पतिं पाञ्चजन्यं जातं शृणोमि यशसं जनेषु। तं मे जगृभ्र आशसो नविष्ठं दोषा वस्तोर्हवमानास इन्द्रम् ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकम्। नु। त्वा। सत्ऽपतिम्। पाञ्चऽजन्यम्। जातम्। शृणोमि। यशसम्। जनेषु। तम्। मे। जगृभ्रे। आऽशसः। नविष्ठम्। दोषा। वस्तोः। हवमानासः। इन्द्रम् ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 32; मन्त्र » 11
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    भा० – मैं (खा एकं नु ) तुझ अकेले को ही ( सत्पतिं ) सज्जनों का पालक, ( पाञ्चजन्यं ) पांचों जन, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, और शासक वर्ग अर्थात् निषाद इन पाचों के हितकारी ( जनेषु जातम् ) सब मनुष्यों में प्रसिद्ध, ( यशसं ) यशस्वी, ( श्रृणोमि ) सुनता हूं । (मे) मुझ प्रजा के ( नविष्ठं इन्द्रम् ) अतिस्तुत्य, सदा नवीन, अति रमणीय ऐश्वर्ययुक्त स्वामी को (आशसः ) आदरपूर्वक स्तुति करने वाले और नाना कामनाओं से युक्त लोग ( हवमानासः ) आदरपूर्वक अपना प्रभु स्वीकार करते हुए ( दोषा वस्तोः ) दिन और रात ( तं जगृभ्रे ) उसको पकड़े रहें, उसको अपना आश्रय बनाये रहें और अपनाये रहें । इसी प्रकार स्त्री भी चाहा करे कि मैं अपने पति को सर्व हितकारी, प्रसिद्ध, यशस्वी होता हुआ सुनूं । वह सदा ऐश्वर्यवान् स्तुतियोग्य रहे, उत्तम विद्वान् जन सदा उसको आश्रय किये रहें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गातुरत्रिय ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, ७, ९, ११ त्रिष्टुप् । २, ३, ४, १०, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ८ स्वराट् पंक्तिः । भुरिक् पंक्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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