ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
ऋषिः - संवरणः प्राजापत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
वि॒त्वक्ष॑णः॒ समृ॑तौ चक्रमास॒जोऽसु॑न्वतो॒ विषु॑णः सुन्व॒तो वृ॒धः। इन्द्रो॒ विश्व॑स्य दमि॒ता वि॒भीष॑णो यथाव॒शं न॑यति॒ दास॒मार्यः॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽत्वक्ष॑णः । सम्ऽऋ॑तौ । च॒क्र॒म्ऽआ॒स॒जः । असु॑न्वतः । विषु॑णः । सु॒न्व॒तः । वृ॒धः । इन्द्रः॑ । विश्व॑स्य । द॒मि॒ता । वि॒ऽभीष॑णः । य॒था॒ऽव॒शम् । न॒य॒ति॒ । दास॑म् । आर्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वित्वक्षणः समृतौ चक्रमासजोऽसुन्वतो विषुणः सुन्वतो वृधः। इन्द्रो विश्वस्य दमिता विभीषणो यथावशं नयति दासमार्यः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठविऽत्वक्षणः। सम्ऽऋतौ। चक्रऽआसजः। असुन्वतः। विषुणः। सुन्वतः। वृधः। इन्द्रः। विश्वस्य। दमिता। विऽभीषणः। यथाऽवशम्। नयति। दासम्। आर्यः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
विषय - राजचक्र में सूर्यवत् राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
भा०—( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् (आर्य ) स्वामी, (सम्-ऋतौ ) संग्राम में तथा एकत्र होने के स्थान सभा आदि में ( वित्वक्षणः ) विद्युत् वत् विविध प्रकार से शत्रुओं को छेदन भेदन करने हारा ( वि-त्वक्-सनः ) विविध या विशेष वस्त्रादि आवरणों को पहनने हारा वा सभादि में विविध विद्याओं के रहस्य खोलकर बतलाने हारा हो । सूर्य जिस प्रकार ( चक्र-मासजः ) संवत्सर चक्र वा मास २ में प्रकट होता है उसी प्रकार राजा भी, (चक्रम्-आसजः ) राज-चक्र वा सैन्यचक्र के मुख स्थान पर प्रकट हो वा सैन्यादि चक्र को अति स्नेह करने वाला, तत्सम्बन्धी कार्यों में तन्मय हो। वह ( असुन्वतः ) निकम्मे, अपुरुषार्थी पुरुष का (वि-षुणः ) विरोधी और ( सुन्वतः ) ऐश्वर्य-उत्पादक पुरुषार्थी पुरुष का ( वृधः ) बढ़ाने वाला हो । वह (विभीषणः ) विशेष रूप से भीषण होकर भी ( विश्वस्य दमिता ) समस्त राज्य का दमन करने हारा होकर ( दासम् ) सेवक जन, भृत्य तथा प्रजानाशक शत्रुजन को भी ( यथावशं ) यथाशक्ति (नयति) सन्मार्ग पर चलावे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६, ९ त्रिष्टुप् । २, ४, ५ निचृज्जगती । ३, ७ जगती । ८ विराड्जगती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
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