ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 34/ मन्त्र 7
ऋषिः - संवरणः प्राजापत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
समीं॑ प॒णेर॑जति॒ भोज॑नं मु॒षे वि दा॒शुषे॑ भजति सू॒नरं॒ वसु॑। दु॒र्गे च॒न ध्रि॑यते॒ विश्व॒ आ पु॒रु जनो॒ यो अ॑स्य॒ तवि॑षी॒मचु॑क्रुधत् ॥७॥
स्वर सहित पद पाठसम् । ई॒म् । प॒णेः । अ॒ज॒ति॒ । भोज॑नम् । मु॒षे । वि । दा॒शुषे॑ । भ॒ज॒ति॒ । सू॒नर॑म् । वसु॑ । दुः॒ऽगे । च॒न । ध्रि॒य॒ते॒ । विश्वः॑ । आ । पु॒रु । जनः॑ । यः । अ॒स्य॒ । तवि॑षीम् । अचु॑क्रुधत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समीं पणेरजति भोजनं मुषे वि दाशुषे भजति सूनरं वसु। दुर्गे चन ध्रियते विश्व आ पुरु जनो यो अस्य तविषीमचुक्रुधत् ॥७॥
स्वर रहित पद पाठसम्। ईम्। पणेः। अजति। भोजनम्। मुषे। वि। दाशुषे। भजति। सूनरम्। वसु। दुःऽगे। चन। ध्रियते। विश्वः। आ। पुरु। जनः। यः। अस्य। तविषीम्। अचुक्रुधत् ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 34; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
विषय - राजा योग्य अयोग्य को परितोषिक और दण्ड दे । पात्रानुरूप धन का विभाग करे ।
भावार्थ -
भा० - राजा ( पणेः ) स्तुति करने योग्य और व्यवहारकुशल पुरुष के ( भोजनं ) भोजन और पालन को ( सम् अजति) प्राप्त कराता है । और ( मुषे ) चोर के लिये (वि) उससे विपरीत दण्ड करता है, उसको भोजन और शरीर-रक्षा के विपरीत भूखों मारता और शस्त्रास्त्र से भी दण्डित करता है । और ( दाशुषे ) दानशील, आत्मसमर्पक प्रजा के हितार्थ ( सूनरं ) उत्तम नायकों से युक्त ( वसु ) वसने योग्य राष्ट्र और ऐश्वर्य को ( वि भजति ) यथायोग्य रूप से विभक्त करता, पात्रानुरूप दान करता है । और ( यः ) जो ( अस्य ) इस राजा की ( तविषी) बलवती शक्ति को ( अचुक्रुधत् ) क्रोधित कर दे वह ( पुरु जनः ) बहुत से लोग भी ( विश्वे ) सब ( दुर्गे चन आध्रियते ) दुर्ग के बीच कैद कर रख दिये जाते हैं ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६, ९ त्रिष्टुप् । २, ४, ५ निचृज्जगती । ३, ७ जगती । ८ विराड्जगती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें