ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 34/ मन्त्र 8
सं यज्जनौ॑ सु॒धनौ॑ वि॒श्वश॑र्धसा॒ववे॒दिन्द्रो॑ म॒घवा॒ गोषु॑ शु॒भ्रिषु॑। युजं॒ ह्य१॒॑न्यमकृ॑त प्रवेप॒न्युदीं॒ गव्यं॑ सृजते॒ सत्व॑भि॒र्धुनिः॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठसम् । यत् । जनौ॑ । सु॒ऽधनौ॑ । वि॒श्वऽश॑र्धसौ । अवे॑त् । इन्द्रः॑ । म॒घऽवा॑ । गोषु॑ । शु॒भ्रिषु॑ । युज॑म् । हि । अ॒न्यम् । अकृ॑त । प्र॒ऽवे॒प॒नी । उत् । ई॒म् । गव्य॑म् । सृ॒ज॒ते॒ । सत्व॑ऽभिः । धुनिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं यज्जनौ सुधनौ विश्वशर्धसाववेदिन्द्रो मघवा गोषु शुभ्रिषु। युजं ह्य१न्यमकृत प्रवेपन्युदीं गव्यं सृजते सत्वभिर्धुनिः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठसम्। यत्। जनौ। सुऽधनौ। विश्वऽशर्धसौ। अवेत्। इन्द्रः। मघऽवा। गोषु। शुभ्रिषु। युजम्। हि। अन्यम्। अकृत। प्रऽवेपनी। उत्। ईम्। गव्यम्। सृजते। सत्त्वऽभिः। धुनिः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 34; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
विषय - समृद्धों और बलवानों में भी व्यवस्था करे ! उनको लड़ने न दे ।
भावार्थ -
भा०- ( यत् ) जो ( जनौ ) दो मनुष्य, दो जनपदवासी नायक ( सुधनौ ) खूब धन से समृद्ध और ( विश्व-शर्धसौ ) सब प्रकार के शस्त्रास्त्र बलों से सुदृढ़ हो जायँ तो ( मघवा इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ( शुपु ) नाना रत्न और शोभादायी दृश्यों से सम्पन्न ( गोषु ) भूमियों की रक्षा के निमित्त उन दोनों को ( सम् अवेत् ) परस्पर मिलाकर सन्धि पूर्वक रक्खे, उत्तम राज्य की भूमियों का संहार उनके परस्पर युद्ध से न होने दे । ( अन्यम् ) अपने से भिन्न शत्रु को भी (युजम् अकृत ) अपना सहायक बनाले । यदि वह सामपूर्वक सहयोग न करे तो जिस प्रकार ( प्रवेपनी धुनिः सत्वभिः गव्यं ईं उत्सृजते ) वेग से चलने वाली नदी वेगों से चलकर भूमि के हितकर जल प्रदान करती है उसी प्रकार बलवान् राजा भी ( धुनिः ) शत्रु को कंपा देने में समर्थ होकर (प्र-वेपनी ) खूब कंपा देने वाली सैन्य शक्ति के द्वारा (ईं ) उसको प्रहार कर ( सत्वभिः ) अपने बलवान् वीरों से ( गव्यम् ) भूमि से प्राप्त समस्त धन ( उत्सृजते ) उससे छीन ले ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६, ९ त्रिष्टुप् । २, ४, ५ निचृज्जगती । ३, ७ जगती । ८ विराड्जगती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
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