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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 34/ मन्त्र 8
    ऋषिः - संवरणः प्राजापत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सं यज्जनौ॑ सु॒धनौ॑ वि॒श्वश॑र्धसा॒ववे॒दिन्द्रो॑ म॒घवा॒ गोषु॑ शु॒भ्रिषु॑। युजं॒ ह्य१॒॑न्यमकृ॑त प्रवेप॒न्युदीं॒ गव्यं॑ सृजते॒ सत्व॑भि॒र्धुनिः॑ ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । यत् । जनौ॑ । सु॒ऽधनौ॑ । वि॒श्वऽश॑र्धसौ । अवे॑त् । इन्द्रः॑ । म॒घऽवा॑ । गोषु॑ । शु॒भ्रिषु॑ । युज॑म् । हि । अ॒न्यम् । अकृ॑त । प्र॒ऽवे॒प॒नी । उत् । ई॒म् । गव्य॑म् । सृ॒ज॒ते॒ । सत्व॑ऽभिः । धुनिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं यज्जनौ सुधनौ विश्वशर्धसाववेदिन्द्रो मघवा गोषु शुभ्रिषु। युजं ह्य१न्यमकृत प्रवेपन्युदीं गव्यं सृजते सत्वभिर्धुनिः ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। यत्। जनौ। सुऽधनौ। विश्वऽशर्धसौ। अवेत्। इन्द्रः। मघऽवा। गोषु। शुभ्रिषु। युजम्। हि। अन्यम्। अकृत। प्रऽवेपनी। उत्। ईम्। गव्यम्। सृजते। सत्त्वऽभिः। धुनिः ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 34; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः पूर्वोक्तविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो धुनिर्मघवेन्द्रो यत्सुधनौ विश्वशर्धसौ जनौ समवेच्छुभ्रिषु गोषु हि युजमन्यमकृत प्रवेपनी सती गव्यमीं सत्त्वभिरुत्सृजते स सुखकरो जायते ॥८॥

    पदार्थः

    (सम्) (यत्) यौ (जनौ) (सुधनौ) धर्मेण जातश्रेष्ठधनौ (विश्वशर्धसौ) समग्रबलयुक्तौ (अवेत्) प्राप्नुयात् (इन्द्रः) राजा (मघवा) परमपूजितबहुधनः (गोषु) धेनुपृथिव्यादिषु (शुभ्रिषु) शुभगुणेषु (युजम्) युक्तम् (हि) यतः (अन्यम्) (अकृत) करोति (प्रवेपनी) गच्छन्ती (उत्) (ईम्) उदकम् (गव्यम्) गोभ्यो हितम् (सृजते) (सत्त्वभिः) पदार्थैः (धुनिः) कम्पकः ॥८॥

    भावार्थः

    राज्ञा स्वराज्य उत्तमान् धनिनो विदुषोऽध्यापकोपदेशकाँश्च संरक्ष्यैतैर्व्यवहारधनविद्योन्नतिः कार्य्या ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर पूर्वोक्त विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (धुनिः) कंपनेवाला (मघवा) अत्यन्त श्रेष्ठ बहुत धन से युक्त (इन्द्रः) राजा और (यत्) जो (सुधनौ) धर्म्म से उत्पन्न हुए श्रेष्ठ धन से तथा (विश्वशर्धसौ) सम्पूर्ण बल से युक्त (जनौ) दो जनों को (सम्, अवेत्) अच्छे प्रकार प्राप्त होवे और (शुभ्रिषु) उत्तम गुणवाले (गोषु) धेनु और पृथिवी आदिकों में (हि) जिससे (युजम्) युक्त (अन्यम्) अन्य को (अकृत) करता है और (प्रवेपनी) चलती हुई (गव्यम्) गौओं के लिये हितकारक (ईम्) जल को (सत्त्वभिः) पदार्थों से (उत्, सृजते) उत्पन्न करता है, वह सुख करनेवाला होता है ॥८॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिये कि अपने राज्य में उत्तम धनी, विद्वान् तथा अध्यापक और उपदेशकों की उत्तम प्रकार रक्षा करके उनसे व्यवहार धन और विद्या की उन्नति करे ॥८॥

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    विषय

    समृद्धों और बलवानों में भी व्यवस्था करे ! उनको लड़ने न दे ।

    भावार्थ

    भा०- ( यत् ) जो ( जनौ ) दो मनुष्य, दो जनपदवासी नायक ( सुधनौ ) खूब धन से समृद्ध और ( विश्व-शर्धसौ ) सब प्रकार के शस्त्रास्त्र बलों से सुदृढ़ हो जायँ तो ( मघवा इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ( शुपु ) नाना रत्न और शोभादायी दृश्यों से सम्पन्न ( गोषु ) भूमियों की रक्षा के निमित्त उन दोनों को ( सम् अवेत् ) परस्पर मिलाकर सन्धि पूर्वक रक्खे, उत्तम राज्य की भूमियों का संहार उनके परस्पर युद्ध से न होने दे । ( अन्यम् ) अपने से भिन्न शत्रु को भी (युजम् अकृत ) अपना सहायक बनाले । यदि वह सामपूर्वक सहयोग न करे तो जिस प्रकार ( प्रवेपनी धुनिः सत्वभिः गव्यं ईं उत्सृजते ) वेग से चलने वाली नदी वेगों से चलकर भूमि के हितकर जल प्रदान करती है उसी प्रकार बलवान् राजा भी ( धुनिः ) शत्रु को कंपा देने में समर्थ होकर (प्र-वेपनी ) खूब कंपा देने वाली सैन्य शक्ति के द्वारा (ईं ) उसको प्रहार कर ( सत्वभिः ) अपने बलवान् वीरों से ( गव्यम् ) भूमि से प्राप्त समस्त धन ( उत्सृजते ) उससे छीन ले ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६, ९ त्रिष्टुप् । २, ४, ५ निचृज्जगती । ३, ७ जगती । ८ विराड्जगती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सुधनौ विश्वशर्धसौ

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (जनौ) = घर के मुख्य पति-पत्नीरूप व्यक्तियों को (सुधनौ) = उत्तम मार्ग से कमाये धनवाला तथा (विश्वशर्धसौ) = अन्तः प्रविष्ट बलवाला (सम् अवेत्) = जानता है तो (मघवा) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (हि) = निश्चय से (अन्यम्) = अपने इस मित्र रूप जीव को (शुभ्रिषु गोषु) = ज्ञानदीप्त व तेजस्विता से चमकती हुई इन्द्रियों के होने पर (हि युजं अकृत) = निश्चय से अपने साथ मेलवाला बनाता है, अर्थात् प्रभु प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम 'सुधन व विश्वशर्धस्' बनें । उत्तम धन को विषयों में व्यथित न करते हुए हम सबल बने रहें । तृतीय मन्त्र के शब्दों में 'कवासख मघवा' न बन जाएँ। २. (प्रवेपनी) = वेपनवाला– शत्रु प्रकृष्ट कम्पक अस्त्रोंवाला [वेपन- Weapon] (धुनिः) = शत्रुकम्पक प्रभु इस अपने साथी के लिए (ईम्) = निश्चयपूर्वक (सत्वभिः) = शक्तियों के साथ (गव्यम्) = इन्द्रियों के समूह को उत्सृजते देता है। यदि हम सुधन होकर प्रभु से दूर नहीं होंगे तो क्यों न उत्कृष्ट शक्तिशाली इन्द्रियों को प्राप्त करेंगे ?

    भावार्थ

    भावार्थ- हम उत्तम मार्ग से धनों को कमाएँ, अपने अन्दर शक्तियों को व्याप्त करें। शुद्ध इन्द्रियोंवाले बनकर प्रभु के मित्र बनें। प्रभु कृपा से इन्द्रियों को अधिकाधिक उत्कृष्ट बना पाएँ ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने आपल्या राज्यात उत्तम, धनवान, विद्वान व अध्यापक आणि उपदेशकाचे उत्तम प्रकारे रक्षण करून व्यवहार धन व विद्या उन्नत करावी. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    If Indra, lord of honour and excellence, terror of the enemies and inspirer of the people by virtues of his nature and character, were to come across and select two men possessed of honest wealth and all round strength and courage from among the brilliant people over the reputed and spotless regions of the land, he would appoint one as his assistant, and the other for economic management providing for abundant water and wealth of cows and food products.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of a king's attributes continues.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! a king is terrifier of the wicked and is endowed with honored abundant wealth meets two (types of. Ed.) leading persons who are very rich and powerful and tries to keep them united. He makes them companions for the protection of the cows and lands and cultivation of noble virtues. His wife is also active and energetic, arranges, pure drinking water and nourishing animal foods for the cows.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A king should have in his kingdom good and wealthy persons, scholars, teachers and preachers and make the State advanced with their help in business, wealth and education.

    Foot Notes

    (अवेत) प्राप्नुयात् । अवधातोरनकार्थेष्वत्र अवाप्त्यर्थं -ग्रहणम् । = Meet or approach. (विश्वशर्धसौ) समग्र बलयुक्तौ । शर्ध इति बलनाम (NG 2, 9)= Endowed with full strength.

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