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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
    ऋषिः - संवरणः प्राजापत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो अ॑स्मै घ्रं॒स उ॒त वा॒ य ऊध॑नि॒ सोमं॑ सु॒नोति॒ भव॑ति द्यु॒माँ अह॑। अपा॑प श॒क्रस्त॑त॒नुष्टि॑मूहति त॒नूशु॑भ्रं म॒घवा॒ यः क॑वास॒खः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अ॒स्मै॒ । घ्रं॒से । उ॒त । वा॒ । यः । ऊध॑नि । सोम॑म् । सु॒नोति॑ । भव॑ति । द्यु॒ऽमान् । अह॑ । अप॑ऽअप । स॒क्रः । त॒त॒नुष्टि॑म् । ऊ॒ह॒ति॒ । त॒नूऽशु॑भ्रम् । म॒घऽवा॑ । यः । क॒व॒ऽस॒खः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अस्मै घ्रंस उत वा य ऊधनि सोमं सुनोति भवति द्युमाँ अह। अपाप शक्रस्ततनुष्टिमूहति तनूशुभ्रं मघवा यः कवासखः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। अस्मै। घ्रंसे। उत। वा। यः। ऊधनि। सोमम्। सुनोति। भवति। द्युऽमान्। अह। अपऽअप। शक्रः। ततनुष्टिम्। ऊहति। तनूऽशुभ्रम्। मघऽवा। यः। कवऽसखः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! योऽस्मै घ्रंस उत वोधनि सोमं सुनोत्यह द्युमान् भवति यः शक्रः ततनुष्टिमूहति यः कवासखो मघवा तनूशुभ्रमूहति स सततं दुःखमपापोहति ॥३॥

    पदार्थः

    (यः) (अस्मै) (घ्रंसे) दिने। घ्रंस इत्यहर्नामसु पठितम्। (निघं०१।९) (उत) अपि (वा) पक्षान्तरे (यः) (ऊधनि) उषः समये (सोमम्) जलम् (सुनोति) पिबति (भवति) (द्युमान्) बहुविद्याप्रकाशः (अह) विशेषेण ग्रहणे (अपाप) दूरीकरणे (शक्रः) शक्तिमान् (ततनुष्टिम्) विस्तारम् (ऊहति) वितर्कयति (तनूशुभ्रम्) शुभ्रा शुद्धा तनूर्यस्य तम् (मघवा) प्रशंसितधनवान् (यः) (कवासखः) कविः सखा यस्य ॥३॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या अहर्निशं पुरुषार्थयन्ति ते सततं सुखिनो जायन्ते ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (अस्मै) इसके लिये (घ्रंसे) दिन में (उत) भी (वा) अथवा (ऊधनि) प्रभातसमय में (सोमम्) जल का (सुनोति) पान करता और (अह) विशेष करके ग्रहण करने में (द्युमान्) बहुत विद्या प्रकाशवाला (भवति) होता तथा (यः) जो (शक्रः) शक्तिमान् (ततनुष्टिम्) विस्तार की (ऊहति) तर्कना करता और (यः) जो (कवासखः) विद्वान् जन मित्र जिसके ऐसा (मघवा) प्रशंसित धनयुक्त पुरुष (तनूशुभ्रम्) शुद्ध शरीरवाले की तर्कना करता है, वह निरन्तर दुःख को (अपाप) दूर करने की तर्कना करता है ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य दिन और रात्रि पुरुषार्थ करते हैं, वे निरन्तर सुखी होते हैं ॥३॥

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    विषय

    आरोग्य-सम्पादन ।

    भावार्थ

    भा०- ( यः ) जो ( घंसे ) दिन के समय ( उत वा ) अथवा ( यः ऊधनि ) रात्रि या प्रातः समय में अर्थात् दिन रात ( अस्मै ) इस राष्ट्र की वृद्धि के लिये ( सोमं सुनोति ) देह में औषध, जल या पुष्टिकर वीर्य के समान ऐश्वर्य को उत्पन्न करता, उसकी सेवन या वृद्धि करता है वह ( अह ) निश्चय से ( द्युमान् ) तेजस्वी ( भवति ) हो जाता है । ( यः ) जो पुरुष ( कवासखः ) विद्वान् पुरुषों का मित्र ( मघवा ) ऐश्वर्यवान् और ( शक्रः ) शक्तिशाली होकर ( तनूशुभ्रं ) देह में वा राष्ट्र में शोभाजनक ( ततनुष्टिम् ) शक्ति की ( ऊहति ) वृद्धि करता है वह ( अ-अप ) सब रोगों और शत्रुओं को सदा दूर भगा देता है । अथवा ( मघवा शक्रः ) शक्तिमान् ईश्वर ( ततनुष्टिम् अप ऊहति ) विस्तृत शक्ति और कामना वाले तथा ( तनुशुभ्रं ) देह को सजाने वाले अभिमानी को ( यः कवासखः ) जो कुत्सित मित्रों वाला, कुसङ्गी है उसको भी ( अप ऊहति ) नष्ट कर देता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६, ९ त्रिष्टुप् । २, ४, ५ निचृज्जगती । ३, ७ जगती । ८ विराड्जगती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'ततनुष्टि-तनूशुभ्र व कवासख' न बनना

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (अस्मै) = इस प्रभु प्राप्ति के लिए (घूंसे) = दिन में (उत वा) = और (यः) = जो (ऊधनि) = रात्रि में (सोमं सुनोति) = अपने अन्दर सोम का सम्पादन करता है वह (अह) = निश्चय से (द्युमान् भवति) = ज्योतिर्मय जीवनवाला होता है सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और ज्ञानाग्नि की दीप्ति से प्रभु की प्राप्ति होती है। २. (शक्रः) = वह सर्वशक्तिमान् प्रभु (ततनुष्टिम्) = ततनुष्टि को- [ततं धर्मसन्ततिं नुदति, वष्टि कामयते कामान् सा०] धर्ममार्ग को छोड़कर कामात्मा बन जानेवाले को (अप अप ऊहति) = अपने से दूर और दूर ही करता है। उस व्यक्ति को अपने से दूर करता है, जो कि (तनूशुभ्रम्) = अपने शरीर को शोभित करने में लगा रहता है-जिसे मन व बुद्धि को परिष्कृत करने का ध्यान नहीं होता। प्रभु उसे दूर रखते हैं जोकि (मघवा) = ऐश्वर्यवाला होता हुआ (कवासखः) = कुत्सित पुरुषों का मित्र बनता है। ये मित्र उसे अवनत ही करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से हम ज्योतिर्मय जीवनवाले बनकर प्रभु को प्राप्त करेंगे। उस समय हम 'ततनुष्टि-तनूशुभ्र व कवासख' न बनेंगे- धर्ममार्ग को छोड़कर कामात्मा न बन जाएँगे, शरीर को ही सजाने में न लगे रहेंगे - कुत्सित पुरुषों के संग में रहनेवाले न होंगे। सूचना- 'गृह्यपन्तेऽस्मिन् रसाः इति घंस:- दिन, ' 'उद्धततरं भवति इति ऊधः रात्रिः'।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे सतत पुरुषार्थ करतात ती निरंतर सुखी होतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    He who creates soma day and night and offers it to this lord Indra surely rises to heights of brilliance in knowledge, power and honour. But Indra, the lord commanding wealth, power, honour and excellence, disowns and throws off that man far and farther from himself who lives and works only for self-decoration and self-exhibition and associates with the selfish, miserly and wholly acquisitive.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of learned persons are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! one who takes water properly in the day time or at the dawn, becomes full of splendor and full of the light of knowledge (owing to being healthy). A mighty person who desires and thinks of expansion of good work and looks after the person who has got pure body and many wise friends. He keeps misery far away.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons who are industrious day and night, always enjoy happiness.

    Foot Notes

    (ऊधनि) उष: सममे ऊक्ष इति रात्रिनाम (NG 1, 7) अत्र-रात्रि साहचर्यादुवसो ग्रहणम् । = At the dawn. (घ्र्न्से ) दिने । घ्र्न्स इत्याहर्नाम् (NG 1, 9)। = In day time. (ततनूसृष्टिम् ) विस्तारम् । तनु-विस्तारे (तना० ) । = Expansion or extension. (कवासखः) कविः सखा वस्य । = He who has wise men as friends. (सोमम् ) जसम् । सोमः पयः ( Stph 12, 7, 3, 13) आप: सोमः सुतः (Stph 7, 1, 1, 22 ) = Water.

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