ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
ऋषिः - संवरणः प्राजापत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
यस्याव॑धीत्पि॒तरं॒ यस्य॑ मा॒तरं॒ यस्य॑ श॒क्रो भ्रात॑रं॒ नात॑ ईषते। वेतीद्व॑स्य॒ प्रय॑ता यतंक॒रो न किल्बि॑षादीषते॒ वस्व॑ आक॒रः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । अव॑धीत् । पि॒तर॑म् । यस्य॑ । मा॒तर॑म् । यस्य॑ । श॒क्रोअः । भ्रात॑रम् । न । अतः॑ । ई॒ष॒ते॒ । वेति॑ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । अ॒स्य॒ । प्रऽय॑ता । य॒त॒म्ऽक॒रः । न । किल्बि॑षात् । ई॒ष॒ते॒ । वस्वः॑ । आ॒ऽक॒रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्यावधीत्पितरं यस्य मातरं यस्य शक्रो भ्रातरं नात ईषते। वेतीद्वस्य प्रयता यतंकरो न किल्बिषादीषते वस्व आकरः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठयस्य। अवधीत्। पितरम्। यस्य। मातरम्। यस्य। शक्रः। भ्रातरम्। न। अतः। ईषते। वेति। इत्। ऊँ इति। अस्य। प्रऽयता। यतम्ऽकरः। न। किल्विषात्। ईषते। वस्वः। आऽकरः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 34; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रजाविषयमाह ॥
अन्वयः
शक्रो यस्य पितरं यस्य मातरं यस्य भ्रातरं नावधीदतोऽस्य नेषतेऽस्य यतङ्करो न प्रयता वेति उ वस्व आकरः किल्विषात् पृथगिदीषते प्राप्नोति ॥४॥
पदार्थः
(यस्य) (अवधीत्) (पितरम्) (यस्य) (मातरम्) जननीम् (यस्य) (शक्रः) शक्तिमान् (भ्रातरम्) सहोदरम् (न) निषेधे (अतः) (ईषते) हिनस्ति (वेति) कामयते (इत्) (उ) (अस्य) (प्रयता) प्रकर्षेण दत्तानि (यतङ्करः) यः प्रयत्नं करोति (न) इव (किल्विषात्) पापात् (ईषते) (वस्वः) वसुनो धनस्य (आकरः) समूहः ॥४॥
भावार्थः
ये पितामाताभ्रात्रादयः पालयेयुस्तेषां पुत्रादिभिः सततं सत्कारः कर्त्तव्यो ये पापाचरणं विहाय धर्म्ममाचरन्ति ते सर्वदा सुखिनो जायन्ते ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रजाविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(शक्रः) सामर्थ्यवान् जन (यस्य) जिसके (पितरम्) पिता का (यस्य) जिसकी (मातरम्) माता का और (यस्य) जिसके (भ्रातरम्) भ्राता का (न) नहीं (अवधीत्) नाश करे (अतः) इससे इसका (न) नहीं (ईषते) नाश करता और (अस्य) इसके (यतङ्करः) प्रयत्न करनेवाले के (न) सदृश (प्रयता) अत्यन्त दिये हुओं की (वेति) कामना करता है (उ) और (वस्वः) धन का (आकरः) समूह (किल्विषात्) पाप से पृथक् (इत्) ही (ईषते) प्राप्त होता है ॥४॥
भावार्थ
जो पिता, माता और भ्रातृ आदि पालन करें, उनके पुत्र आदि को चाहिये कि निरन्तर सत्कार करें और जो पापाचरण का त्याग करके धर्म्म का आचरण करते हैं, वे सब काल में सुखी होते हैं ॥४॥
विषय
वैरी का पूर्ण दमन ।
भावार्थ
भा०- ( शक्रः ) शक्तिशाली राजा ( यस्य पितरम् ) जिसके पिता को, (यस्य मातरं ) जिसकी माता को वा ( यस्य भ्रातरं ) जिसके भाई को भी ( अवधीत् ) मारे या दण्ड दे और वह ( अतः न ईयते ) उससे भय न खावे वह ( यतङ्करः ) सदा उसे बांधने हारा वा यत्नशील रहकर ( यस्य प्रयता इत् उ वेति ) उसको अच्छी प्रकार संयमन या वश करने की कामना करता रहे । वह ( वस्वः आकरः ) ऐश्वर्य को सब ओर से संग्रह करने में कुशल होकर ( किल्विषात् ) पाप या पापी पुरुष से ( न ईषते ) कभी भय न खावे, प्रत्युत सदा उसको नाश करने में लगा रहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६, ९ त्रिष्टुप् । २, ४, ५ निचृज्जगती । ३, ७ जगती । ८ विराड्जगती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
उभयतो वाहिनी चित् नदी
पदार्थ
१. 'पापवृत्ति' का पिता [जन्मदाता] लोभ है, इसका निर्माण करनेवाली माता कामवासना है, तथा इसका भरण करनेवाला भाई [भ्राता] क्रोध है । (यस्य) = जिस पापवृत्ति के (पितरम्) = जन्मदाता लोभ को तथा (यस्य) = जिस पापवृत्ति की (मातरम्) = मातृस्थानापन्न कामवासना को, और (यस्य) = जिस पापवृत्ति के (भ्रातरम्) = भ्रातृतुल्य-भरण करनेवाले-क्रोध को (शक्रः) वे सर्वशक्तिमान् प्रभु (अवधीत्) = नष्ट करते हैं, वे प्रभु (अतः) = इस पाप से (न ईषते) = भयभीत नहीं होते, अपितु पाप को पराजित करनेवाले होते हैं । २. वे प्रभु (अस्य) = इस पापवृत्ति के (यतंकर:) = नियमनकर्त्ता होते हैं । वे अब इसे पुण्यवृत्ति के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। वे अब इसके द्वारा होनेवाली (प्रयता) = पवित्र हवियों का (इत् उ) = ही (वेति) = चाहते हैं [कामयते] । वे (वस्वः आकरः) = सब वसुओं [धनों] के निधान प्रभु (किल्बिषात्) = पाप से (न ईषते) = डर कर भाग नहीं जाते। उसे वश में करके पुण्य के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। इसीलिए वे वसुओं के कोश बनते हैं। वस्तुतः मनोवृत्ति ही 'कामक्रोध-लोभ' से आक्रान्त होकर 'पापवृत्ति' बन जाती है। इन काम आदि के नष्ट होने पर यही 'पुण्यवृत्ति' में परिवर्तित हो जाती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु 'काम-क्रोध-लोभ' को नष्ट करके हमारी मनोवृत्ति को पुण्य के प्रवाहवाली बनाएँ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे माता-पिता व बंधू इत्यादींचे पालन करतात. त्यांच्या पुत्रांनी त्यांचा निरंतर सत्कार करावा. जे पापाचरणाचा त्याग करून धर्माचे आचरण करतात ते सदैव सुखी होतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
If the powerful ruler punishes somebody’s father or mother or brother, he does not for that reason forsake that person, nor does he go back on his decision. Indeed he expects and accepts the homage of the man since he loves effort and endeavour, and he is the shelter of all and a treasure of wealth. He does not fly away from sin and guilt, he faces it and fixes it.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of children are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A mighty person does not kill whose father, or mother or brother does not (or intends to) kill him also. Like an industrious and laborious person, he desires articles given voluntarily to him with love. His treasure of wealth is not obtained (or acquired. Ed.) by committing sins (by unfair means. Ed.).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Father mother brother and other relations who feed and nourish should always be honored by sons and other kith and kin. Those who always act with Dharma (righteousness) by giving up all unrighteousness, always enjoy happiness.
Translator's Notes
सोमस्य प्रयति (Rig 1, 10, 9, 2) व्याख्याने श्री यास्काचार्येन 'सोमस्य प्रदानेन (NKT 6, 2, 9) व्याख्यातम् ।
Foot Notes
(ईषते ) । हिनस्ति । ईष-गतिहिंसा दर्शनेषु । (भ्वा० ) अत्र हिंसार्थ: । = Kills, harms ( प्रयता) प्रकर्षेण दत्तानि । = Given specially or with great love. (किल्विषात् ) पापात् । = From sin.
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