ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 34/ मन्त्र 9
स॒ह॒स्र॒सामाग्नि॑वेशिं गृणीषे॒ शत्रि॑मग्न उप॒मां के॒तुम॒र्यः। तस्मा॒ आपः॑ सं॒यतः॑ पीपयन्त॒ तस्मि॑न्क्ष॒त्रमम॑वत्त्वे॒षम॑स्तु ॥९॥
स्वर सहित पद पाठस॒ह॒स्र॒ऽसाम् । आग्नि॑ऽवेशिम् । गृ॒णी॒षे॒ । शत्रि॑म् । अ॒ग्ने॒ । उ॒प॒ऽमाम् । के॒तुम् । अ॒र्यः । तस्मै॑ । आपः॑ । स॒म्ऽयतः॑ । पी॒प॒य॒न्त॒ । तस्मि॑न् । क्ष॒त्रम् । अम॑ऽवत् । त्वे॒षम् । अ॒स्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रसामाग्निवेशिं गृणीषे शत्रिमग्न उपमां केतुमर्यः। तस्मा आपः संयतः पीपयन्त तस्मिन्क्षत्रममवत्त्वेषमस्तु ॥९॥
स्वर रहित पद पाठसहस्रऽसाम्। आग्निऽवेशिम्। गृणीषे। शत्रिम्। अग्ने। उपऽमाम्। केतुम्। अर्यः। तस्मै। आपः। संऽयतः। पीपयन्त। तस्मिन्। क्षत्रम्। अमऽवत्। त्वेषम्। अस्तु ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 34; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने राजन् ! अर्यस्त्वं सहस्रसामाग्निवेशिं शत्रिमुपमां केतुं गृणीषे तस्मै त आप इव संयतः प्रजाः पीपयन्त तस्मिंस्त्वयि राज्ञि अमवत्त्वेषं क्षत्रमस्तु ॥९॥
पदार्थः
(सहस्रसाम्) यः सहस्रानसंख्यातान् पदार्थान् सनति विभजति तम् (आग्निवेशिम्) योऽग्निं प्रवेशयति तम् (गृणीषे) स्तौषि (शत्रिम्) दुःखविच्छेदकम् (अग्ने) पावक इव (उपमाम्) दृष्टान्तम् (केतुम्) प्रज्ञाम् (अर्यः) स्वामी (तस्मै) (आपः) जलानीव प्रजाः (संयतः) संयमयुक्ताः (पीपयन्त) तर्पयन्ति (तस्मिन्) (क्षत्रम्) धनं राज्यं वा (अमवत्) गृहेण तुल्यम् (त्वेषम्) प्रकाशयुक्तम् (अस्तु) ॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि राजा भवितुमिच्छेत्तर्हि सर्वशास्त्रविशारदीं शुभगुणाढ्यां प्रज्ञां प्राप्य पितृवत्प्रजाः पालयेदेवं कृते सति प्रशस्तं राष्ट्रं वर्धेतेति ॥९॥ अत्रेन्द्रविद्वत्प्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुस्त्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी राजन् ! (अर्यः) स्वामी आप (सहस्रसाम्) असङ्ख्य पदार्थों के विभाग करने (आग्निवेशिम्) अग्नि को प्रवेश कराने और (शत्रिम्) दुःख के नाश करनेवाले (उपमाम्) दृष्टान्त और (केतुम्) बुद्धि की (गृणीषे) स्तुति करते हो (तस्मै) उन आपके लिये (आपः) जलों के सदृश प्रजायें (संयतः) इन्द्रियों के निग्रह से युक्त हुईं (पीपयन्त) तृप्ति करती हैं (तस्मिन्) उन आप राजा में (अमवत्) गृह के तुल्य (त्वेषम्) प्रकाश से युक्त (क्षत्रम्) धन वा राज्य (अस्तु) होवे ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा होने की इच्छा करे तो सर्व शास्त्रों में प्रविष्ट हुई स्वच्छ और उत्तम गुणों से युक्त बुद्धि को प्राप्त होकर जैसे पितृजन पुत्रों का पालन करते वैसे प्रजाओं का पालन करे, ऐसा करने पर श्रेष्ठ राज्य बढ़े ॥९॥ इस सूक्त में इन्द्र विद्वान् और प्रजा के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौंतीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
राजा प्रजा के परस्पर कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! सेनापते वा विद्वन् ! जो (अर्यः) स्वयं स्वामी होकर भी ( सहस्रसाम् ) सहस्रों सुखों के देने वाले (आग्नि वेशिम् ) अग्नि के अधीन निवासिनी प्रजाओं के हितार्थ ( शत्रिम् ) दुःखों के नाशकारी ( उपमां ) दृष्टान्त स्वरूप, आदर्श, ( केतुम् ) ज्ञान का (गृणीषे) उपदेश करे तो (तस्मै ) उसको (संयतः) सुप्रबद्ध जल-धाराओं के सदृश आप्त प्रजाजन ( पीपयन्त ) खूब समृद्ध करती हैं और ( तस्मिन्) उसके अधीन (क्षत्रम् ) बलशाली क्षत्रसैन्य बल ( अमवत् ) सहायक वा गृह के समान सुख देने वाला और ( त्वेषम् ) तेज के तुल्य प्रतापी (अस्तु) हो । इति चतुर्थो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६, ९ त्रिष्टुप् । २, ४, ५ निचृज्जगती । ३, ७ जगती । ८ विराड्जगती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
आप: पीपयन्त
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन्! मैं (सहस्रसाम्) = सहस्रशः धनों के दाता, (आग्निवेशिम्) = [अग्निं विशति] प्रगतिशील पुरुष में प्रवेश करनेवाले,(शत्रिम्) = शत्रुओं के संहारक, (उपमाम्) = हमारे समीप होकर हमारा निर्माण करनेवाले [उप-माम्], (केतुम्) = ज्ञानस्वरूप आप को (गृणीषे) = स्तुत करता हूँ। २. (तस्मा) = उक्त प्रकार से आपका स्तवन करनेवाले मेरे लिए (संयतः) = शरीर के अन्दर ही सम्यक् गतिवाले (आपः) = रेत: कण (पीपयन्त) = वृद्धि को प्राप्त हों। इस प्रकार इन रेत: कणों के रक्षक मुझ में (अभवत्) = स्थायी [constant] (त्वेषम्) = दीप्त (क्षत्रम्) = क्षत्रों से त्राण का सामर्थ्य (अस्तु) = हो ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं शत्रुसंहारक प्रभु का स्मरण करूँ । इस स्मरण से वासनाशून्य मुझ में रेतः कणों का व्यापन हो। इन रेतः कणों की प्राप्ति से मेरा बल स्थायी व दीप्त हो । इस स्थायी दीप्त बल को प्राप्त करनेवाला यह 'प्रभूवसु' बनता है। 'प्रभूः च असौ वसु च' शक्तिशाली और उत्तम निवासवाला। यह आंगिरस-अंग-अंग में रसवाला होता है। इसकी आराधना है कि -
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याला राजा होण्याची इच्छा असेल त्याने जसे पितृगण पुत्रांचे पालन करतात तसे सर्व शास्त्रात प्रवीण व उत्तम गुणयुक्त बुद्धीने प्रजेचे पालन करावे. याप्रमाणे श्रेष्ठ राज्याचे वर्धन करावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, refulgent ruler, you adore Indra, giver of a thousand gifts of fire and electric energy, powerful, self-evident mark of honour and grandeur. Such as you are, I pray, like rivers flowing in bounds to the sea, may the disciplined people be dedicated to you and may the social order, brilliance and majesty vest in you as their very home and glory incarnate.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a king are highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king shining like fire! you being a good ruler admire an intellect that provides thousands of things to others, teaches the proper nature of Agni (fire and electricity for various purposes), is destroyer of miseries and is deal. Your self-controlled subjects praise you like waters. May there be glorious wealth in kingdom like your home?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In order to become a ruler, a man has to attain an intellect well-versed in all Shastras and endowed with all noble virtues; he should provide protection to his subjects like a father. By building a good State he may ever prosper.
Foot Notes
(अमवत् ) गृहेण तुल्यम् । अमेति गृहनाम (NG 3, 4)। = Like home. (त्वेषम् ) प्रकांशयुक्तम् त्विष-दीप्तौ (भ्वा० ) । = Glorious, shining. (क्षत्रम्) धनं राज्यं वा । क्षत्रम् इति धननाम (NG 2, 10) क्षत्रं हि राष्ट्रम् (Aitareya Brahman 7, 22)। = Wealth or kingdom.
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