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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अत्रिः देवता - इन्द्र: छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    वृषा॒ ग्रावा॒ वृषा॒ मदो॒ वृषा॒ सोमो॑ अ॒यं सु॒तः। वृष॑न्निन्द्र॒ वृष॑भिर्वृत्रहन्तम ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । ग्रावा॑ । वृषा॑ । मदः॑ । वृषा॑ । सोमः॑ । अ॒यम् । सु॒तः । वृष॑न् । इ॒न्द्र॒ । वृष॑ऽभिः । वृ॒त्र॒ह॒न्ऽत॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा ग्रावा वृषा मदो वृषा सोमो अयं सुतः। वृषन्निन्द्र वृषभिर्वृत्रहन्तम ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा। ग्रावा। वृषा। मदः। वृषा। सोमः। अयम्। सुतः। वृषन्। इन्द्र। वृषऽभिः। वृत्रहन्ऽतम ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 40; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    भा०- ( ग्रावा वृषा ) पत्थर या शिला जिस प्रकार अपने नीचे आये पदार्थों को कुचल देता है उसी प्रकार शत्रुओं को कुचलने वाला शस्त्रबल, वां (ग्रावा ) अधीन शिष्यों वा भृत्यों को उपदेश वा आज्ञा देने वाला नायक पुरुष ( वृषा ) मेघ के समान शस्त्रवर्षी, ज्ञानवर्षी, और प्रबन्धकर्त्ता हो । ( मदः ) प्रजाओं का दमन करने वाला पुरुष भी ( वृषा ) बलवान् हो । ( सोमः वृषा ) अभिषेक योग्य पुरुष भी बलवान् हो ( अयं सुतः ) यह ऐसा पुरुष अभिषेक किया जावे ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! हे ( वृत्रहन्तम ) शत्रुओं के उत्तम नाशक । हे ( वृषन् ) बलवन् ! तू इन बलवान् पुरुषों से राष्ट्र का पालन और उपभोग कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अत्रिर्ऋषिः ॥ १–४ इन्द्रः । ५ सूर्यः । ६-९ अत्रिर्देवता ॥ छन्दः— १ निचृदुष्णिक् । २, ३ उष्णिक् । ९ स्वराडुष्णिक् । ४ त्रिष्टुप् । ५, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ७ भुरिक् पंक्तिः ॥

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