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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 45/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि सूर्यो॑ अ॒मतिं॒ न श्रियं॑ सा॒दोर्वाद्गवां॑ मा॒ता जा॑न॒ती गा॑त्। धन्व॑र्णसो न॒द्यः१॒॑ खादो॑अर्णाः॒ स्थूणे॑व॒ सुमि॑ता दृंहत॒ द्यौः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । सूर्यः॑ । अ॒मति॑म् । न । श्रिय॑म् । सा॒त् । आ । ऊ॒र्वात् । गवा॑म् । मा॒ता । जा॒न॒ती । गा॒त् । धन्व॑ऽअर्णसः । न॒द्यः॑ । खादः॑ऽअर्णाः । स्थूणा॑ऽइव । सुऽमि॑ता । दृं॒ह॒त॒ । द्यौः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि सूर्यो अमतिं न श्रियं सादोर्वाद्गवां माता जानती गात्। धन्वर्णसो नद्यः१ खादोअर्णाः स्थूणेव सुमिता दृंहत द्यौः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। सूर्यः। अमतिम्। न। श्रियम्। सात्। आ। ऊर्वात्। गवाम्। माता। जानती। गात्। धन्वऽअर्णसः। नद्यः। खादःऽअर्णाः। स्थूणाऽइव। सुऽमिता। दृंहत। द्यौः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 45; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    भा० - विद्वान् पुरुष और राजा को चाहिये कि ( सूर्यः अमति न ) रूप अर्थात् तेज को जिस प्रकार सूर्य सर्वत्र विभक्त कर देता है उसी प्रकार वह ( श्रियं वि सात् ) ऐश्वर्य को सर्वत्र प्रजाओं में विभक्त करे और विद्वान् (अमतिं व सात्) अज्ञान को विविध उपायों से अन्धकारवत् नाश करे । वह (माता) विदुषी माता के तुल्य दयालु होकर स्वयं ( गवां माता ) नाना किरणों, नाना वाणियों, वा भूमियों के उत्पादक सूर्यवत् निर्माता और ज्ञाता होकर ( ऊर्वात् ) बड़े भारी आकाशवत् ऊंचे रहकर भी सबको ( गात् ) प्राप्त हो । जिस प्रकार ( नद्यः ) नदियां ( धन्वर्णसः ) गति युक्त जल से पूर्ण होकर ( खादः-अर्णाः ) खाने पीने योग्य जल वाली होती हैं उसी प्रकार ( नद्यः ) समृद्ध, प्रजाएं और उपदेष्टा जन (धन्व-अर्णसः) स्थान २ पर उत्तम ज्ञानवान् और ( खाद:-अर्णाः) भक्षण योग्य अन्न जलों से समृद्ध हों । और ( द्यौः ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष भी प्रजाओं को चाहता हुआ ( समिता स्थूणा इव ) घर में उत्तम रीति से लगी आधार-बल्ली या स्तम्भ के समान (दंहत ) दृढ़ हो और राष्ट्र प्रजा को धारण करने में समर्थ हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सदापृण आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द: – १, २ पंक्तिः । ५, ९, ११ भुरिक् पंक्ति: । ८, १० स्वराड् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६,७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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