ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 45/ मन्त्र 3
अ॒स्मा उ॒क्थाय॒ पर्व॑तस्य॒ गर्भो॑ म॒हीनां॑ ज॒नुषे॑ पू॒र्व्याय॑। वि पर्व॑तो॒ जिही॑त॒ साध॑त॒ द्यौरा॒विवा॑सन्तो दसयन्त॒ भूम॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । उ॒क्थाय॑ । पर्व॑तस्य । गर्भः॑ । म॒हीना॑म् । ज॒नुषे॑ । पू॒र्व्याय॑ । वि । पर्व॑तः । जिही॑त । साध॑त । द्यौः । आ॒ऽविवा॑सन्तः । द॒स॒य॒न्त॒ । भूम॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा उक्थाय पर्वतस्य गर्भो महीनां जनुषे पूर्व्याय। वि पर्वतो जिहीत साधत द्यौराविवासन्तो दसयन्त भूम ॥३॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै। उक्थाय। पर्वतस्य। गर्भः। महीनाम्। जनुषे। पूर्व्याय। वि। पर्वतः। जिहीत। साधत। द्यौः। आऽविवासन्तः। दसयन्त। भूम ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 45; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
विषय - गर्भवन् बालक के समान शिष्य वा राजा का कार्य ।
भावार्थ -
भा०- ( गर्भः जनुषे ) जिस प्रकार गर्भ उत्पन्न होने के लिये ही ( विजिहीत ) विशेष रूप से गति करता है उसी प्रकार ( पर्वतस्य ) मेघ के तुल्य पर्व अर्थात् पालन आदि साधनों से युक्त पिता तुल्य आचार्य के (गर्भः) शिष्य ज्ञानग्राहक (पूर्व्याय) पूर्व के विद्वानों द्वारा उपदिष्ट (उक्थाय) प्रशंसनीय, वेदमय ( अस्मै ) इस, उत्तम ( जनुपे ) जन्म लाभ करने के लिये (महीनां ) माता के तुल्य आदरणीय गुरु जनों के बीच (वि जिहीत ) विशेष रूप से जावे । (द्यौः) सूर्यवत् तेजस्वी एवं विद्या की कामना करता हुआ वह स्वयं (पर्वत) मेघ वा पर्वत के समान, ही दृढ और बलवान् होकर ( वि जिहीत ) विविध स्थानों पर जावे और (वि साधत) विविध विद्याओं और शक्तियों की साधना करे । इसी प्रकार (महीनां गर्भः ) इन भूमियों का रक्षक राजा भी ( अस्मै उक्थस्य पर्वतस्य पूर्व्याय जनुषे ) इस प्रशंसनीय पर्व युक्त सैन्यबल के उत्तम लाभ के लिये स्वयं ( पर्वतः सन् वि जिहीत वि साधत ) मेघवत् पालक होकर विविध देशों में जाये और उनको विशेष रूप से साधे, वश करे, इस प्रकार हम लोग ( आ विवासन्तः ) गुरुओं की सेवा शुश्रूषा करते हुए (भूम दसयन्त ) अज्ञान दुःख आदि का सदा नाश करते रहें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सदापृण आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द: – १, २ पंक्तिः । ५, ९, ११ भुरिक् पंक्ति: । ८, १० स्वराड् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६,७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
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