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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 45/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सदापृण आत्रेयः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अ॒स्मा उ॒क्थाय॒ पर्व॑तस्य॒ गर्भो॑ म॒हीनां॑ ज॒नुषे॑ पू॒र्व्याय॑। वि पर्व॑तो॒ जिही॑त॒ साध॑त॒ द्यौरा॒विवा॑सन्तो दसयन्त॒ भूम॑ ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मै । उ॒क्थाय॑ । पर्व॑तस्य । गर्भः॑ । म॒हीना॑म् । ज॒नुषे॑ । पू॒र्व्याय॑ । वि । पर्व॑तः । जिही॑त । साध॑त । द्यौः । आ॒ऽविवा॑सन्तः । द॒स॒य॒न्त॒ । भूम॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा उक्थाय पर्वतस्य गर्भो महीनां जनुषे पूर्व्याय। वि पर्वतो जिहीत साधत द्यौराविवासन्तो दसयन्त भूम ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै। उक्थाय। पर्वतस्य। गर्भः। महीनाम्। जनुषे। पूर्व्याय। वि। पर्वतः। जिहीत। साधत। द्यौः। आऽविवासन्तः। दसयन्त। भूम ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 45; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो महीनां पर्वतस्य च पूर्व्याय जनुषेऽस्मा उक्थाय गर्भः पर्वत इव द्यौर्वि जिहीत यमाविवासन्तः साधत येन दुःखं दसयन्त तेन तुल्या वयं भूम ॥३॥

    पदार्थः

    (अस्मै) (उक्थाय) प्रशंसिताय (पर्वतस्य) मेघस्य (गर्भः) कारणभूतः (महीनाम्) भूमीनाम् (जनुषे) जन्मने (पूर्व्याय) पूर्वेषु भवाय (वि) (पर्वतः) पक्षीव पर्ववान् मेघः (जिहीत) गच्छति (साधत) साध्नुवन्तु (द्यौः) कामयमान इव (आविवासन्तः) सर्वतः परिचरन्तः (दसयन्त) दोषानुपक्षयन्तु (भूम) भवेम ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये विद्यार्थिषु विद्याया गर्भं दधति ते मेघवत्सर्वेषां सुखकारका भवन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (महीनाम्) भूमियों और (पर्वतस्य) मेघ के (पूर्व्याय) पूर्वों में उत्पन्न (जनुषे) जन्म के लिये तथा (अस्मै) इस (उक्थाय) प्रशंसित के लिये (गर्भः) कारणभूत (पर्वतः) पक्षी के समान पर्ववान् मेघ वा (द्यौः) कामना करते हुए के सदृश (वि, जिहीत) विशेष चलता है और जिसको (आविवासन्तः) सब ओर घूमते हुए (साधत) सिद्ध करें, जिससे दुःख का और (दसयन्त) दोषों का नाश करें, उसके तुल्य हम लोग (भूम) होवें ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो विद्यार्थियों में विद्या के गर्भ की धारण करते हैं, वे मेघ के सदृश सब के सुखकारक होते हैं ॥३॥

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    विषय

    गर्भवन् बालक के समान शिष्य वा राजा का कार्य ।

    भावार्थ

    भा०- ( गर्भः जनुषे ) जिस प्रकार गर्भ उत्पन्न होने के लिये ही ( विजिहीत ) विशेष रूप से गति करता है उसी प्रकार ( पर्वतस्य ) मेघ के तुल्य पर्व अर्थात् पालन आदि साधनों से युक्त पिता तुल्य आचार्य के (गर्भः) शिष्य ज्ञानग्राहक (पूर्व्याय) पूर्व के विद्वानों द्वारा उपदिष्ट (उक्थाय) प्रशंसनीय, वेदमय ( अस्मै ) इस, उत्तम ( जनुपे ) जन्म लाभ करने के लिये (महीनां ) माता के तुल्य आदरणीय गुरु जनों के बीच (वि जिहीत ) विशेष रूप से जावे । (द्यौः) सूर्यवत् तेजस्वी एवं विद्या की कामना करता हुआ वह स्वयं (पर्वत) मेघ वा पर्वत के समान, ही दृढ और बलवान् होकर ( वि जिहीत ) विविध स्थानों पर जावे और (वि साधत) विविध विद्याओं और शक्तियों की साधना करे । इसी प्रकार (महीनां गर्भः ) इन भूमियों का रक्षक राजा भी ( अस्मै उक्थस्य पर्वतस्य पूर्व्याय जनुषे ) इस प्रशंसनीय पर्व युक्त सैन्यबल के उत्तम लाभ के लिये स्वयं ( पर्वतः सन् वि जिहीत वि साधत ) मेघवत् पालक होकर विविध देशों में जाये और उनको विशेष रूप से साधे, वश करे, इस प्रकार हम लोग ( आ विवासन्तः ) गुरुओं की सेवा शुश्रूषा करते हुए (भूम दसयन्त ) अज्ञान दुःख आदि का सदा नाश करते रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सदापृण आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द: – १, २ पंक्तिः । ५, ९, ११ भुरिक् पंक्ति: । ८, १० स्वराड् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६,७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अविद्या पर्वत का विचलन

    पदार्थ

    [१] (अस्मै) = इस (महीनां जनुषे) = महनीय स्तुतियों के उत्पन्न करनेवाले (उक्थाय) = स्तोता के लिये (पर्वतस्य) = अविद्या पर्वत का (गर्भः) = मध्य भाग, मध्य भाग ही क्या ? (पर्वतः) = अविद्या पर्वत ही (विजिहीत) = विचलित हो जाता है। (पूर्व्याय) = पूर्व विद्वानों के उपदेश से इस स्तोता का अज्ञान नष्ट हो जाता है। जब हम प्रभु की स्तुति की वृत्तिवाले बनते हैं तो हमारा अज्ञान नष्ट होने लगता है और प्रकाश की वृद्धि होती चलती है। यह अज्ञान के नष्ट होने का प्रारम्भ ही यहाँ 'अविद्या पर्वत के गर्भ का हिलना' कहलाया है तथा धीमे-धीमे यह पर्वत ही विचलित हो जाता है। [२] इस स्तोता के लिये (द्यौः साधत) = प्रकाश सिद्ध होता है। (आविवासन्तः) = सदा प्रभु की परिचर्या करते हुए ये लोग (भूम) = खूब ही (दसयन्त) = काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का विनाश करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ-स्तोता के लिये अविद्या पर्वत का विनाश होकर प्रकाश प्राप्त होता है। इस प्रकाश में काम-क्रोध आदि का विलोप हो जाता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विद्यार्थ्यांमध्ये विद्येचा गर्भ धारण करतात ते मेघाप्रमाणे सर्वांना सुखकारक असतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    In honour of this adorable ancient sun, cause of the birth of planets and the cloud, and for the fertility of the earths, the vapours leave the cloud to rain in showers. Let us too, high shining like the sun, realising the light of knowledge, illuminating all around, giving in charity, eliminating evil, realise ourselves.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the enlightened persons are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let us serve all the beings everywhere and destroy evils like a student who approaches enlightened persons to have admirable and glorious birth by knowing God-God, Who is generator of the earth and clouds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who put in the embryo the seed of knowledge (mind) of the students, bestow of happiness upon all like the clouds.

    Foot Notes

    (पबतः ) पक्षीन पर्वतान् मेघः पर्वत इति मेघनाम (NG 1, 10) = The cloud. (अविवासन्तः ) सर्वतः परिचरन्तः । विवासति परिचरण- कर्मा (NG 3. 5)। Serving from all sides. (दसयन्त ) दोषानुपक्षयन्तु । वसू उपक्षये (दिवा० ) = Destroy evils or defects.

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