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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 45/ मन्त्र 6
    ऋषिः - सदापृण आत्रेयः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    एता॒ धियं॑ कृ॒णवा॑मा सखा॒योऽप॒ या मा॒ताँ ऋ॑णु॒त व्र॒जं गोः। यया॒ मनु॑र्विशिशि॒प्रं जि॒गाय॒ यया॑ व॒णिग्व॒ङ्कुरापा॒ पुरी॑षम् ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒त॒ । धिय॑म् । कृ॒णवा॑म । स॒खा॒यः॒ । अप॑ । या । मा॒ता । ऋ॒णु॒त । व्र॒जम् । गोः । यया॑ । मनुः॑ । वि॒शि॒ऽशि॒प्रम् । जि॒गाय॑ । यया॑ । व॒णिक् । व॒ङ्कुः । आप॑ । पुरी॑षम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एता धियं कृणवामा सखायोऽप या माताँ ऋणुत व्रजं गोः। यया मनुर्विशिशिप्रं जिगाय यया वणिग्वङ्कुरापा पुरीषम् ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। इत। धियम्। कृणवाम। सखायः। अप। या। माता। ऋणुत। व्रजम्। गोः। यया। मनुः। विशिऽशिप्रम्। जिगाय। यया। वणिक्। वङ्कुः। आप। पुरीषम् ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 45; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः प्रज्ञा कथं प्राप्तव्येत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा मनुर्विशिशिप्रं जिगाय यया वङ्कुर्वणिक् पुरीषमापा तां धियं सखायो वयं कृणवामा यथा या माता गोर्व्रजं करोति दुःखमप नयति तथैतं यूयमृणुत धियमेता ॥६॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (इता) प्राप्नुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (धियम्) प्रज्ञानम् (कृणवामा) कुर्याम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (सखायः) सुहृदः सन्तः (अप) (या) (माता) जननीव (ऋणुत) साध्नुत (व्रजम्) मेघम् (गोः) किरणात् (यया) (मनुः) मनुष्यः (विशिशिप्रम्) विशीशिप्रे शोभने हनुनासिके यस्य तम् (जिगाय) जयति (यया) (वणिक्) व्यापारी वैश्यः (वङ्कुः) धनेच्छुः (आपा) आप्नोति। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (पुरीषम्) पूर्तिकरमुदकम्। पुरीषमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१।१२) ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । मनुष्याणां योग्यमस्त्यन्योऽन्येषु सखायो भूत्वा बुद्धिं वर्धयित्वाऽन्येभ्यो विज्ञानं प्रददतु यथा वैश्यो धनं प्राप्यैधते तथा प्रज्ञां प्राप्य वर्द्धन्ताम् ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर मनुष्यों को उत्तम बुद्धि कैसे प्राप्त होनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यया) जिससे (मनुः) मनुष्य (विशिशिप्रम्) सुन्दर ठुढ्ढी और नासिका जिसकी उसको (जिगाय) जीतता है (यया) जिससे (वङ्कुः) धन की इच्छा करनेवाला (वणिक्) व्यापारी वैश्य (पुरीषम्) पूर्ण करनेवाले जल को (आपा) प्राप्त होता है उस (धियम्) बुद्धि को (सखायः) मित्र होते हुए हम लोग (कृणवामा) करें और जैसे (या) जो (माता) माता के सदृश (गोः) किरण से (व्रजम्) मेघ को करता है और दुःख को (अप) दूर करता है, वैसे इसको आप लोग (ऋणुत) सिद्ध करिये और बुद्धि को (आ) सब प्रकार (इता) प्राप्त हूजिये ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । मनुष्यों को योग्य है कि परस्पर में मित्र होकर बुद्धि को बढ़ाय औरों के लिये विशेष ज्ञान अच्छे प्रकार देवें, जैसे वैश्य धन को प्राप्त होकर बढ़ता है, वैसे उत्तम बुद्धि को पाकर बढ़े ॥६॥

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    विषय

    ज्ञानवृद्धयर्थं विद्वानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०—हे ( सखायः ) मित्र जनो ! आप लोग ( आ इत ) आइये और हम लोग ( धियं ) ऐसी बुद्धि और कर्म ( कृणवाम ) करें (या) जो ( माता ) माता के तुल्य ( गो-व्रजं ) ज्ञानमय किरण और वेद वाणी के समूह को ( अप ऋणुत ) खोल २ कर स्पष्ट करें । उसके अभिप्राय को सबके सामने खोलकर रक्खें । ( यया ) जिससे ( मनुः ) मननशील पुरुष (विशि-शिप्रं) प्रजा में विद्यमान ज्ञानी तेजस्वी, सुमुख, सौम्यपुरुष को (जिगाय ) जीतता अर्थात् अपने वश करता उसके मन को हरता है और (यया) जिस से ( वङ्कुः वणिग् ) धन की कामना करने वाला, वैश्य जन ( पुरीषम् आप ) ऐश्वर्य को प्राप्त करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सदापृण आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द: – १, २ पंक्तिः । ५, ९, ११ भुरिक् पंक्ति: । ८, १० स्वराड् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६,७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    Bhajan

    वैदिक मन्त्र
    एता धियं कृणवामा सखायोऽप या मातॉं ऋणुत व्रजं गो:
    यया मनुर्विशिशिप्रं जिगाय यया वणिग्वङ्कुरापा पुरीषम्।। 
                ‌‌                                    ऋ॰ ५.४५.६
                     वैदिक भजन ११४३ वां 
                          राग मिश्र भैरवी
                       गायन समय चारों प्रहर
                         ताल विलंबित कहरवा
    हे गुरु माता तू है कहां? 
    तेरा निशां शिशु के है मन में 
    ममता का जहां।। 

    संसार में गुरु है सबसे प्रथम ये माता
    ज्ञान- गति रहस्य खोले बालक की ज्ञान माता। । 
    संसार......... 
    आचार- व्यवहार की शिक्षा बालक को देती माता
    ईर्ष्या न द्वेष मन में,  बालक है बोध पाता
    यश नाम उसका चमके ना पथ में आए बाधा।। 
    ज्ञान गति.......... 
    चाहती है ज्ञान माता सही कर्म को कराना
    बालक के मन को जाने चाहे आगे बढ़ाना
    सहयोग निज माता का बालक के मन को भाता। । 
    ज्ञान गति.......... 
                                 भाग २
    संसार में गुरु है सबसे प्रथम ये माता
    ज्ञान गति रहस्य खोलें बालक की ज्ञान माता।। 

    स्थित है मानव के अन्दर मातृ समान बुद्धि
    कल्याण हित कराती सही रीति नीति प्रीति
    ना अभद्र,द्वेष,अमंगल ,हिंसा का भाव ना आता। । 
    ज्ञान गति......... 
    हो जाए यज्ञपरायण जो प्रमाण है मेधा का
    ईर्ष्या ना द्वेष जागे पायें सहज, सरलता
    व्यवहार युक्त हो बुद्धि मधु प्रेममय हो वाचा।। 
    ज्ञान गति........... 
    आओ हम आज से ही बनें श्रेष्ठ बुद्धि वाले
    भावों में हो भलाई त्यागें दुरित की चालें
    करें दूर द्वेष मत्सर हो श्रेष्ठ सबसे नाता ।।
    ज्ञान गति.......... 
                           ९.९.२०२३
               ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌            ९.२५ रात्रि
                             शब्दार्थ:-
    जहाँ= संसार
    अभद्र= बुरा, घिनौना 
    यज्ञ परायण= यज्ञ में आसक्त
    मेधा =अच्छी बुद्धि
    वाचा =वाणी
    दुरित= पाप, बुराई
    मत्सर= द्वेष पूर्ण मानसिक अवस्था
    🕉🧘‍♂️
    प्रथम श्रृंखला का १३६ वां वैदिक भजन  और आज तक का ११४३ वां वैदिक भजन। 🙏
    🕉🧘‍♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं❗🙏
     

    Vyakhya

    बुद्धि द्वारा शीघ्र विजय
    संसार में सबसे प्रथम गुरु माता है। सबसे प्रथम ज्ञान की गति का रहस्य वही खोलती है। बालक को पदार्थों का नाम, आचार, व्यवहार की शिक्षा वह देती है । सन्तान को शिक्षा देते समय माता के मन में  ईर्ष्या- द्वेष आदि किसी भी कुत्सित भावना का  लवलेश नहीं होता। वरन् मेरी संतान उत्तम हो, मुझसे बढ़ जाए; संसार में इसका नाम और यश चमके, ऐसी उदात्त भावना  उसके मन में कार्य कर रही होती है । ' गो: व्रजम् ' का अर्थ है गौओं का बाड़ा, ज्ञान का समुदाय,इन्द्रियों की गति । 
    माता ही सब ज्ञान देती है । इन्द्रियों से ठीक-ठाक काम लेना भी माता ही सिखाती है। माता अपने इस व्यवहार से संतान के मन को जान देती है। मनुष्य को अपने अन्दर मातृ- सम्मान बुद्धि का संचय करना चाहिए अर्थात् ऐसी बुद्धि का संचय करना चाहिए,जिससे हितभावना, कल्याण- कामना और प्रीति की रीति नीति ही जीती- जागती हो, द्वेष- मत्सर के अमंगल, अभद्र, मारक भाव ना हों। एतोन्वद्य सुध्यो......... ऋ॰ ५.४५.६
    आओ! हम आज ही उत्तम बुद्धि वाले बनें, बुराई के द्वारा भलाई को प्राप्त करें । द्वेष को दूर फेंकें और श्रेष्ठ चाल वाले होकर यजमान =यज्ञ परायणता को प्राप्त हों। अच्छी बुद्धि का प्रमाण ही यह है कि मनुष्य में ईर्ष्या द्वेष ना हों, बुराई से भलाई प्राप्त करने की योग्यता हो तथा भले पुरुषों की संगति करें। यही वह बुद्धि है ' यया मनुर्विशिशिप्रं जिगाय '= जिससे मनुष्य में सौम्यजन को जीत लेता है। द्वेष रहित मधुर व्यवहार की महिमा यहां तक है कि ' यया वणिग्वङ्कुरापा पुरीषम् '= जिससे बांका बनिया भी धन प्राप्त करता है। बनिया मीठी-मीठी बातें करके ग्राहक को मोह कर उससे यथेच्छ धन प्राप्त करता है।
    स्पष्ट ही, अभिधावृत्ति में  माता के समान प्रेममय,मधु स्वच्छ व्यवहार युक्त बुद्धि का संग्रह करना योग्य है।

     

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    विषय

    ब्राह्मण - क्षत्रिय - वैश्य

    पदार्थ

    [१] हे (सखायः) = मित्रो ! (एता) = आओ, (धियं कृणवाम) = हम बुद्धि का सम्पादन करें। (या) जो बुद्धि (मातान्) = ज्ञान का निर्माण करनेवाले (गोः व्रजम्) = ज्ञानेन्द्रिय समूह को (अप ऋणुत) = वासना के आवरण से दूर करती है। वासना के आवरण के हटने पर ही इन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्ति का साधन बनती हैं। [२] हम उस बुद्धि का सम्पादन करें (यया) = जिससे कि (मनुः) = ज्ञानी पुरुष (विशिशिप्रम्) = वृत्र को, सदा हनुओं में, जबड़ों में ही प्रविष्ट, हर समय खान-पान की वृत्तिवाली इस वासना को (जिगाय) = पराजित करता है। (यया) = जिस बुद्धि से (वङ्कः) = गतिशील (वणिक्) = व्यवहारी पुरुष (पुरीषम्) = पालक व पूरक धन को आप प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- उस बुद्धि का हम सम्पादन करें जिससे कि ब्राह्मण बनकर ज्ञानेन्द्रिय समूह को वासना के आवरण से रहित करके हम ज्ञानवृद्धि को करें, क्षत्रिय होते हुए वासनारूप शत्रुओं को पराजित करें, तथा वैश्य होते हुए पुरुषार्थ से धन का सम्पादन करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी एकमेकांचे मित्र बनून बुद्धी वाढवावी व इतरांना विशेष ज्ञान द्यावे. जसे वैश्य धन प्राप्त करून धनिक होतो तसे उत्तम बुद्धी प्राप्त करून उत्कृष्ट व्हावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Come friends, let us take up works of science and reason by which mother knowledge reveals and, like the dawn, opens the doors of light and power, by which the man of war and tactics wins the helmet and armour, and by which the industrious producer achieves fertile land and ample water.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men attain intellect is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! let us cultivate that good intellect which makes all as friends to one another, and by which a thoughtful person conquers a wicked. Such a man has handsome chin and nose, and by him a trader desirous of wealth gets water (in a desert etc.), by which a mother makes cloud from the rays of the sun (through the process of fumigation etc.) and removes misery. In the same manner, you should accomplish this work and attain good intellect and knowledge,

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of men to be friendly to each another in order to increase intellectual power and to give scientific knowledge to others. As a Vaishya (businessman) grows by acquiring wealth, same way let all people grow by getting good intellect.

    Foot Notes

    (ऋणृत) साध्नुत। ऋणु-गरौ (तनाः) गतेस्त्रिश्वर्थोस्वत्र प्राप्तयर्थंग्रहणम् कार्यसिद्धि प्राप्नुत। = Accomplish. (वङ्कुः) धनेच्छुः । वकि कौटिल्य (भ्वा० ) = Desirous of wealth. (पुरीषम् ) पूर्तिकरमुदकम् । पुरीष मित्युदकनाम (NG 1, 12 ) = Desiring to get wealth by hook or by crook.

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