ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 45/ मन्त्र 11
ऋषिः - सदापृण आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
धियं॑ वो अ॒प्सु द॑धिषे स्व॒र्षां ययात॑र॒न्दश॑ मा॒सो नव॑ग्वाः। अ॒या धि॒या स्या॑म दे॒वगो॑पा अ॒या धि॒या तु॑तुर्या॒मात्यंहः॑ ॥११॥
स्वर सहित पद पाठधिय॑म् । वः॒ । अ॒प्ऽसु । द॒धि॒षे॒ । स्वः॒ऽसाम् । यया॑ । अत॑रन् । दश॑ । मा॒सः । नव॑ऽग्वाः । अ॒या । धि॒या । स्या॒म॒ । दे॒वऽगो॑पाः । अ॒या । धि॒या । तु॒तु॒र्या॒म॒ । अति॑ । अंहः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
धियं वो अप्सु दधिषे स्वर्षां ययातरन्दश मासो नवग्वाः। अया धिया स्याम देवगोपा अया धिया तुतुर्यामात्यंहः ॥११॥
स्वर रहित पद पाठधियम्। वः। अप्ऽसु। दधिषे। स्वःसाम्। यया। अतरन्। दश। मासः। नवऽग्वाः। अया। धिया। स्याम। देवऽगोपाः। अया। धिया। तुतुर्याम। अति। अंहः ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 45; मन्त्र » 11
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
ये मनुष्याः प्रज्ञां याचन्ते ते विद्वांसो जायन्त इत्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यया नवग्वा दश मासोऽतरन्नया धिया वयं देवगोपाः स्यामाऽया धियांऽहोऽति तुतुर्याम वः स्वर्षां तां धियमप्सु प्राणेष्वहं दधिषे ॥११॥
पदार्थः
(धियम्) प्रज्ञां कर्म वा (वः) युष्माकम् (अप्सु) (दधिषे) धारयेयम् (स्वर्षाम्) स्वः सुखं सनति विभजति यया ताम् (यया) (अतरन्) तरन्ति (दश) (मासः) (नवग्वाः) नवीनगतयः (अया) अनया (धिया) (स्याम) (देवगोपाः) देवानां विदुषां रक्षकाः (अया) (धिया) (तुतुर्याम) विनाशयेम (अति) (अंहः) पापं पापजन्यं दुःखं वा ॥११॥
भावार्थः
ये धीमन्तो धनवन्तो बलाढ्या भूत्वा सर्वान् रक्षन्ति ते दुःखानि तरन्ति ॥११॥ अत्र सूर्यविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चचत्वारिंशत्तमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
जो मनुष्य उत्तम बुद्धि की याचना करते हैं, वे विद्वान् होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (यया) जिससे (नवग्वाः) नवीन गमनवाले (दश) दश (मासः) महीने (अतरन्) पार होते हैं (अया) इस (धिया) बुद्धि से हम लोग (देवगोपाः) विद्वानों के रक्षक (स्याम) होवें और (अया) इस (धिया) बुद्धि से (अंहः) पाप वा पाप से उत्पन्न दुःख का (अति, तुतुर्याम) अत्यन्त विनाश करें (वः) आपकी (स्वर्षाम्) सुख का विभाग करता है जिससे उस (धियम्) बुद्धि को (अप्सु) प्राणों में मैं (दधिषे) धारण करूँ ॥११॥
भावार्थ
जो बुद्धिमान्, धनवान् और बल से युक्त होकर सब की रक्षा करते हैं, वे दुःखों के पार होते हैं ॥११॥ इस सूक्त में सूर्य और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पैंतालीसवाँ सूक्त और सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
तेजस्वी के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-हे विद्वान् पुरुषो ! मैं (वः ) आप लोगों की प्रदान की ( स्वर्षान् ) सुखप्रद ( धियं ) उस बुद्धि वा कर्म को ( दधिषे ) धारण करूं (या) जिससे ( नवग्वाः ) नवीन, उत्तम गति वाले, सदाचारीजन ( दश-मासः ) दस महीनों को ( अतरन् ) व्यतीत करते हैं । हम लोग ( अया धिया ) उसी धारणावती बुद्धि से ( देवगोपाः स्याम ) विद्वानों, व्यवहारज्ञों विजिगीषुओं, शुभ उत्तम गुणों और इन्द्रियों के पालक ( स्याम ) हों और ( अया धिया ) इसी बुद्धि या कर्म से हम ( अंहः अति तुतुर्याम ) पाप कर्म और उसके दुष्फल को अतिक्रमण कर उसका नाश करें । इति सप्तविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सदापृण आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द: – १, २ पंक्तिः । ५, ९, ११ भुरिक् पंक्ति: । ८, १० स्वराड् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६,७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
उत्कृष्ट बुद्धि
पदार्थ
[१] मैं (वः) = तुम्हारे लिये (अप्सु) = कर्मों में (स्वर्षाम्) = प्रकाश को देनेवाली (धियम्) = बुद्धि को (दधिषे) = धारण करता हूँ उस बुद्धि को देता हूँ जो कर्त्तव्याकर्त्तव्य का विवेक करने में समर्थ होती है। उस बुद्धि को मैं तुम्हारे लिये देता हूँ (यया) = जिससे कि (नवग्वाः) = स्तुत्य गतिवाले [नु स्तुतौ] (दशमासः) = दस इन्द्रियों को [मीयन्ते विषयाः यैः] (अतरन्) = तैर जाते हैं। इस बुद्धि के द्वारा, मनीषा के द्वारा मन का शासन करते हुए वे इन्द्रियों का दमन कर पाते हैं। [२] अया (धिया) = इस बुद्धि के द्वारा हम (देवगोपा:) = दिव्यगुणों के रक्षक हों और (अया धिया) = इस बुद्धि के द्वारा (अंहः) = पाप को अतितुतुर्याम तैर जाएँ। बुद्धि हमें दिव्य गुणों के रक्षण के योग्य बनायेगी और पापों से हमें पार करेगी।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें कर्त्तव्याकर्त्तव्य विवेकक्षम बुद्धि देते हैं। इससे हम [क] इन्द्रियों को वश में कर पाते हैं, [ख] दिव्य गुणों का रक्षण करते हैं और [ग] पाप से पार हो जाते हैं । इस बुद्धि के द्वारा सब पापों से मोर्चा लेनेवाले व उनसे मुकाबिला करनेवाले हम 'प्रतिक्षत्र' बनते हैं। 'प्रतिक्षत्र' बनकर 'आत्रेय' तो होते ही हैं, 'काम-क्रोध-लोभ' तीनों से दूर । इस प्रतिक्षत्र का जीवन इस प्रकार का होता है -
मराठी (1)
भावार्थ
जे बुद्धिमान, धनवान व बलवान बनून सर्वांचे रक्षण करतात ते दुःखातून तरून जातात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O divinities of nature and humanity, I pray, I may absorb into my pranic energies and actions that blissful intelligence of your gift by which the rising souls on the move cross the seas over ten months. May we, by this, be protectors and promoters of our sages and our divine nature. May we, by this, cross the seas over sin and evil.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The men who pray seriously for good intellect become gradually the scholars is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! may we be the protectors of the enlightened persons, and may we get over the sins and miseries by this good intellect or action. Such men of ever new ideas and actions complete the Yajna lasting for ten months. I establish in my Pranas that good intellect which bestows happiness and urges up to share it with others.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The wise, wealthy and mighty persons protect all, and get over all miseries.
Foot Notes
(सवर्षाम्) स्वः सुखं सन्ति विभजतिय या ताम् षणसंभक्तौ (भ्वा०) = By which a man gets happiness and shares it with others. (तुतुर्याम्) विनाशयेम। तूरी गीतत्वरणहिन्सनयोः (दिवा०) अत्र हिन्सार्थकः। = Let us destroy. (अहं:) पापं पापजन्यं दुःखं वा । = Sin or the misery resulting from it. Here ends Suktam (hymn) forty-five of the Mandalam-V of the Rigveda, with commentary of Swami Dayananda Sarasvati translated into English by Swami Dharmananda (formerly Pt. Dharma Deva) after it's editing by Pt. Brahmadutt Snatak M.A.
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