ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 45/ मन्त्र 8
ऋषिः - सदापृण आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
विश्वे॑ अ॒स्या व्युषि॒ माहि॑नायाः॒ सं यद्गोभि॒रङ्गि॑रसो॒ नव॑न्त। उत्स॑ आसां पर॒मे स॒धस्थ॑ ऋ॒तस्य॑ प॒था स॒रमा॑ विद॒द्गाः ॥८॥
स्वर सहित पद पाठविश्वे॑ । अ॒स्याः । वि॒ऽउषि॑ । माहि॑नायाः । सम् । यत् । गोभिः॑ । अङ्गि॑रसः । नव॑न्त । उत्सः॑ । आ॒सा॒म् । प॒र॒मे । स॒धऽस्थे॑ । ऋ॒तस्य॑ । प॒था । स॒रमा॑ । वि॒द॒त् । गाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वे अस्या व्युषि माहिनायाः सं यद्गोभिरङ्गिरसो नवन्त। उत्स आसां परमे सधस्थ ऋतस्य पथा सरमा विदद्गाः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठविश्वे। अस्याः। विऽउषि। माहिनायाः। सम्। यत्। गोभिः। अङ्गिरसः। नवन्त। उत्सः। आसाम्। परमे। सधऽस्थे। ऋतस्य। पथा। सरमा। विदत्। गाः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 45; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा विश्वे प्राणिनो माहिनाया अस्या व्युषि गोभिस्सहाङ्गिरसः सन्नवन्त यदासां परमे सधस्थ ऋतस्य पथा उत्स इव सरमा गा विदत् तांस्तांश्च यूयं विजानीत ॥८॥
पदार्थः
(विश्वे) सर्वे (अस्याः) उषसः (व्युषि) विशिष्टे निवासे (माहिनायाः) महत्त्वयुक्तायाः (सम्) (यत्) यतः (गोभिः) किरणैः (अङ्गिरसः) वायवः (नवन्त) स्तुवन्ति (उत्सः) कूप इव (आसाम्) उषसाम् (परमे) प्रकृष्टे (सधस्थे) सहस्थाने (ऋतस्य) सत्यस्योदकस्य वा (पथा) मार्गेण (सरमा) या सरान् प्राप्तान् (विदत्) वेत्ति (गाः) किरणान् ॥८॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यता प्रभातवेलायां प्राणिनो हर्षन्ति तथैव निःसन्देहा भूत्वा मनुष्या आनन्दन्ति ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसे वर्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (विश्वे) सम्पूर्ण प्राणी (माहिनायाः) महत्त्व से युक्त (अस्याः) प्रातर्वेला के (व्युषि) विशिष्ट निवास में (गोभिः) किरणों के साथ (अङ्गिरसः) पवन (सम्, नवन्त) अच्छे प्रकार स्तुति करते हैं (यत्) जिससे (आसाम्) इन प्रातर्वेलाओं के (परमे) प्रकृष्ट (सधस्थे) साथ के स्थान में (ऋतस्य) सत्य वा जल के (पथा) मार्ग से (उत्सः) कूप के सदृश (सरमा) प्राप्त हुओं का आदर करनेवाली (गाः) किरणों को (विदत्) जानती है, उन उनको आप लोग विशेष कर जानिये ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे प्रभातवेला में प्राणी प्रसन्न होते हैं, वैसे ही सन्देहरहित होकर मनुष्य आनन्दित होते हैं ॥८॥
विषय
वेद वाणियों का परम स्थान प्रभु ।
भावार्थ
भा० – (यत्) जो ( विश्वे अंगिरसः ) समस्त विद्वान् लोग ( व्युषि ) प्रभात वेला में वायुएं जिस प्रकार सूर्य की किरणों के साथ संगत होते हैं उसी प्रकार ( अस्याः ) ( इस महिनायाः ) अति उत्तम तेजस्विनी परमेश्वरी शक्ति के (वि- उषि ) विशेष प्रकट होने पर ( गोभिः ) वेदवाणियों से ( सं नवन्त ) उसकी अच्छी प्रकार स्तुतिः करते हैं ( आसां ) उन वाणियों का ( उत्सः ) उत्तम स्त्रोत ( सधस्थे ) परम स्थान में है । ( सरमा) उत्तम ज्ञान को देने वाली बुद्धि (ऋतस्य पथा ) जहां सत्य ज्ञान रूप प्रकाशमय वेदोपदिष्ट मार्ग से चल कर ( गाः विदत् ) वेद वाणियों को भली प्रकार जानें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सदापृण आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द: – १, २ पंक्तिः । ५, ९, ११ भुरिक् पंक्ति: । ८, १० स्वराड् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६,७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
उषा का उदय व स्वाध्याय
पदार्थ
[१] (विश्वे) = सब (अंगिरस:) = गतिशील पुरुष [अगि गतौ] (अस्याः) = इस (माहिनायाः) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उषा के (व्युषि) = उदित होने पर अन्धकार को दूर करने पर (यद्) = जब (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों से (सं नवन्त) = संगत होते हैं, तो (आसाम्) = इन ज्ञानवाणियों का (उत्सः) = ज्ञानदुग्ध का उत्स्राव [बहाव] इन अंगिरसों को (परमे सधस्थे) = सर्वोत्कृष्ट सहस्थान में, परमात्मा व जीवात्मा के मिलकर रहने के स्थान में ले जानेवाला होता है। अंगिरा लोग प्रातः उठकर स्वाध्याय में प्रवृत्त होते हैं। यह स्वाध्याय उन्हें प्रभु के समीप प्राप्ति में सहायक होता है। [२] इन अंगिरसों की (सरमा) = बुद्धि (ऋतस्य पथा) = ऋत के मार्ग से (गाः) = इन ज्ञानवाणियों को (विदत्) = प्राप्त करती है । 'ऋत का पथ' यही है कि सब कार्यों को सूर्य व चन्द्रमा की गति के अनुसार नियम से करना । यह नियमितता हमारी बुद्धि को तीव्र बनाती है और हमें ज्ञान के उपादान में क्षम करती है।
भावार्थ
भावार्थ- हम उषा के होते ही स्वाध्याय प्रवृत्त होकर, सब कार्यों को नियमित गति से करते हुए, ज्ञान प्राप्ति में लगें ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे प्रभातकाळी प्राणी प्रसन्न होतात तसे संशयरहित बनल्यास माणसे आनंदित होतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
8. When on the rise of this glorious dawn the Angiras, vibrant scholars and sages dedicated to yajnic divinity, meet and rejoice with the rays of light, then, the oceanic source of these rays of light being in the highest heaven, it is the radiations of Divinity on the waves of nature’s vitality that transmit the revelations of light and knowledge and bless the yajnic seekers.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men behave is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! as the airs are linked with the rays of the sun at the rise of this great dawn, and as enlightened men who practice Pranayama bow before God with the recitations of the Vedic mantras, the source is in that Supreme Being. Good intellect gets the knowledge by the path of truth of the Vedic words, which are like rays of the sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As all the beings are delighted at the dawn, in the same manner, men enjoy on being free from all doubts.
Foot Notes
(म्युचि) विशिष्टे निवासे । = At the special dwelling or rising, (उत्सः) कूप इव । उच्छ निवासे । उत्स इति । कूपनाम (NG3, 2, 3) = Source.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal