ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 45/ मन्त्र 7
ऋषिः - सदापृण आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
अनू॑नो॒दत्र॒ हस्त॑यतो॒ अद्रि॒रार्च॒न्येन॒ दश॑ मा॒सो नव॑ग्वाः। ऋ॒तं य॒ती स॒रमा॒ गा अ॑विन्द॒द्विश्वा॑नि स॒त्याङ्गि॑राश्चकार ॥७॥
स्वर सहित पद पाठअनू॑नोत् । अत्र॑ । हस्त॑ऽयतः । अद्रिः॑ । आर्च॑न् । येन॑ । दश॑ । मा॒सः । नव॑ऽग्वाः । ऋ॒तम् । य॒ती । स॒रमा॑ । गाः । अ॒वि॒न्द॒त् । विश्वा॑नि । स॒त्या । अङ्गि॑राः । च॒का॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनूनोदत्र हस्तयतो अद्रिरार्चन्येन दश मासो नवग्वाः। ऋतं यती सरमा गा अविन्दद्विश्वानि सत्याङ्गिराश्चकार ॥७॥
स्वर रहित पद पाठअनूनोत्। अत्र। हस्तऽयतः। अद्रिः। आर्चन्। येन। दश। मासः। नवऽग्वाः। ऋतम्। यती। सरमा। गाः। अविन्दत्। विश्वानि। सत्या। अङ्गिराः। चकार ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 45; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
येनात्र नवग्वा दश मासो वर्त्तन्ते हस्तयतोऽद्रिर्राचन्ननूनोद्या सरमा ऋतं यती गा अविन्दत्। यश्चाङ्गिरा विश्वानि सत्या चकार ते सत्कर्त्तुमर्हाः सन्ति ॥७॥
पदार्थः
(अनूनोत्) प्रेरयेत् (अत्र) (हस्तयतः) हस्ता यता निगृहीता वशीभूता यस्य सः (अद्रिः) मेघ इव (आर्चन्) सत्कुर्वन् (येन) (दश) (मासः) चैत्राद्याः (नवग्वाः) नवीनगतयः (ऋतम्) सत्यम् (यती) यतमाना (सरमा) समानरमणा (गाः) इन्द्रियाणि (अविन्दत्) प्राप्नोति (विश्वानि) सर्वाणि (सत्या) सत्यानि (अङ्गिराः) अङ्गानां रसरूपः प्राण इव (चकार) करोति ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये मनुष्याः सर्वदा सत्याचारा भूत्वा सर्वोपकारं साध्नुवन्ति तेऽत्र धर्मात्मानो गण्यन्ते ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(येन) जिससे (अत्र) इस संसार में (नवग्वाः) नवीन गमनवाले (दश) दश (मासः) चैत्र आदि महीने वर्तमान हैं और (हस्तयतः) हाथ निग्रह किये अर्थात् वशीभूत किये जिसके वह (अद्रिः) मेघ के सदृश (आर्चन्) सत्कार करता हुआ (अनूनोत्) प्रेरणा करे और जो (सरमा) तुल्य रमनेवाली (ऋतम्) सत्य का (यती) यत्न करती हुई (गाः) इन्द्रियों को (अविन्दत्) प्राप्त होती है और जो (अङ्गिराः) अङ्गों का रसरूप प्राण के सदृश (विश्वानि) सम्पूर्ण (सत्या) सत्य कार्य्यों को (चकार) करता है, वे सत्कार करने योग्य हैं ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो मनुष्य सर्वदा सत्य आचरण से युक्त होकर सब के उपकार को सिद्ध करते हैं, वे इस संसार में धर्मात्मा गिने जाते हैं ॥७॥
विषय
ज्ञानवृद्धयर्थं विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०-( अत्र ) इस यज्ञ, अध्ययनाध्यापन एवं शास्त्र जो अनुशासन काल में (अद्रिः) मेघवत् निष्पक्षपात होकर विद्वान् पुरुष ( हस्त यतः ) हाथ पैर आदि को वश करने वाले जितेन्द्रिय हो कर ( अनूनोत् ) अन्यों को ऐसा उपदेश करे ( येन ) जिस से ( दशमासः ) दस महीने तक (नवग्वाः) नवीन मार्ग पर गमन करने वाले भी ( आ अर्चन् ) अच्छी प्रकार ज्ञान प्राप्त करें । (ऋतं यती सरमा ) सत्य ज्ञान को प्राप्त करने में यत्नशील बुद्धि ( गाः ) वाणियों को ( अविन्दत ) प्राप्त करे । और ( अङ्गिराः ) ज्ञानवान् पुरुष ( विश्वानि सत्याः ) सब सत्य ज्ञानों को ( चकार ) प्रकट करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सदापृण आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द: – १, २ पंक्तिः । ५, ९, ११ भुरिक् पंक्ति: । ८, १० स्वराड् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६,७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
हस्त यतः अद्रिः अनूनोत्
पदार्थ
[१] (अत्र) = यहाँ इस जीवन में (हस्तयतः) = संयत हाथोंवाला, अर्थात् संयमपूर्वक कर्मों को करनेवाला (अद्रिः) = उपासक [one who adores] (अनूनोत्) = प्रभु का स्तवन करता है। स्तोता के सब कार्य बड़े संयमपूर्वक किये जाते हैं। यह संयमपूर्वक कार्यों को करना वह मार्ग है (येन) = जिससे (नवग्वाः) = स्तुत्य गतियोंवाले (दश मास:) = दसों इन्द्रियों से उस उस कर्त्तव्य को मापनेवाले, नपेतुले कार्यों को करनेवाले, (आर्चन्) = प्रभु की अर्चना करते हैं। [२] इन उपासकों की सरमा सब ज्ञानों में विचरण करनेवाली बुद्धि (ऋतं यती) = सत्यमार्ग पर चलती हुई, सत्य की ओर जाती हुई, (गा: अविन्दत्) = ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करती है। (अंगिरा:) = यह अंग-प्रत्यंग में रसवाला उपासक विश्वानि सत्या चकार अपने सब कर्मों को इस बुद्धि के द्वारा सत्ययुक्त करता है, इसका कोई कर्म असत्य नहीं होता ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की उपासना संयमयुक्त कर्मों द्वारा होती है। इन उपासकों की बुद्धि सत्यज्ञान को प्राप्त करती हुई, इनके सब कर्मों को भी सत्य कर देती है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सत्याचा आश्रय घेऊन सर्वांवर उपकार करतात ती या जगात धर्मात्मा मानली जातात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the priest of dexterous hand, generous like the cloud, celebrant of divinity and nature's powers, set the yajna in motion, inspiring the new generation on the move to keep the fire burning for ten months at least, and the dynamics of revelation would flow to the yajna, open the secrets of World and knowledge and control of mind and senses, and vibrant men of initiative would enact projects of truth and universal good.$7. Let the priest of dexterous hand, generous like the cloud, celebrant of divinity and nature’s powers, set the yajna in motion, inspiring the new generation on the move to keep the fire burning for ten months at least, and the dynamics of revelation would flow to the yajna, open the secrets of the Word and knowledge and control of mind and senses, and vibrant men of initiative would enact projects of truth and universal good.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should man do is further highlighted?
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Such persons are worthy of respect, who teach in such a manner that even those who are new in the field of education acquire sufficient knowledge in ten months. Such a man is showerer of happiness like the cloud, and he asks only those who have control over their hands and other organs, to do good deeds. He possesses the intellect which equally delighted all subjects, and gets good senses to act and by which a man, dear to us like Prana (life energy), performs all truthful deeds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons are considered to be the righteous ones in this world who being endowed with truthful conduct, accomplish the good of others.
Foot Notes
(अनूनोत् ) प्रेरयेत् । गुद-प्रेरणे (तुदा० ) = May urge. (नवग्वाः) नवीनगतयः। = Whose movements are new, notices. (सरमा ) समानरमण । रमु क्रीडायाम् = Equally delighted in all subjects. (अङ्गिराः) अङ्घांना रसरूपः प्राण इव । प्राणौ वा अङ्गिरा: (Stph 6, 12, 28, 1, 2, 3, 4) = Like the Prana (vital energy) which is the essence of all organs.
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