ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 50/ मन्त्र 2
ऋषिः - प्रतिप्रभ आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ते ते॑ देव नेत॒र्ये चे॒माँ अ॑नु॒शसे॑। ते रा॒या ते ह्या॒३॒॑पृचे॒ सचे॑महि सच॒थ्यैः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठते । ते॒ । दे॒व॒ । ने॒तः॒ । ये । च॒ । इ॒मान् । अ॒नु॒ऽशसे॑ । ते । रा॒या । ते । हि । आ॒ऽपृचे॑ । सचे॑महि । स॒च॒थ्यैः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते ते देव नेतर्ये चेमाँ अनुशसे। ते राया ते ह्या३पृचे सचेमहि सचथ्यैः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठते। ते। देव। नेतः। ये। च। इमान्। अनुऽशसे। ते। राया। ते। हि। आऽपृचे। सचेमहि। सचथ्यैः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 50; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
विषय - समवाय बनाने का उपदेश ।
भावार्थ -
भा०-हे (देव) विजिगीषो! विद्वन् ! राजन् ! हे (नेतः ) नायक ! ( ते ते ) वे तेरे ही अधीन हों (ये च ) जो भी ( इमान् ) इन समस्त तेजों को (अनुशसे ) तेरे अनुगामी होकर शासन करने के लिये नियुक्त हों। (हि) क्योंकि और (ते) वे लोग ( राया ) धन द्वारा तेरे साथ सम्बद्ध हों अर्थात् वेतनादि से बधें। और ( ते हि ) वे ( आपृचे ) परस्पर के सम्बन्धों से बंधे रहने के लिये भी समवाय बनावें । उसी प्रकार हम प्रजा वर्ग भी ( सचथ्यैः ) उन समवायों के उत्तम नेताओं से मिल कर ( सचेमहि ) दृढ समवाय बना कर रहें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः-१ स्वराडुष्णिक् । २ निचृदुष्णिक् । ३ भुरिगुष्णिक् । ४, ५ निचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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