ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
स्व॒यं द॑धिध्वे॒ तवि॑षीं॒ यथा॑ वि॒द बृ॒हन्म॑हान्त उर्वि॒या वि रा॑जथ। उ॒तान्तरि॑क्षं ममिरे॒ व्योज॑सा॒ शुभं॑ या॒तामनु॒ रथा॑ अवृत्सत ॥२॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒यम् । द॒धि॒ध्वे॒ । तवि॑षीम् । यथा॑ । वि॒द । बृ॒हत् । म॒हा॒न्तः॒ । उ॒र्वि॒या । वि । रा॒ज॒थ॒ । उ॒त । अ॒न्तरि॑क्षम् । म॒मि॒रे॒ । वि । ओज॑सा । शुभ॑म् । या॒ताम् । अनु॑ । रथाः॑ । अ॒वृ॒त्स॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वयं दधिध्वे तविषीं यथा विद बृहन्महान्त उर्विया वि राजथ। उतान्तरिक्षं ममिरे व्योजसा शुभं यातामनु रथा अवृत्सत ॥२॥
स्वर रहित पद पाठस्वयम्। दधिध्वे। तविषीम्। यथा। विद। बृहत्। महान्तः। उर्विया। वि। राजथ। उत। अन्तरिक्षम्। ममिरे। वि। ओजसा। शुभम्। याताम्। अनु। रथाः। अवृत्सत ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 55; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
विषय - मरुतों,वीरों का वर्णन उनके कर्तव्य ।
भावार्थ -
भा०- ( यथा ) जिस प्रकार से (बृहत् ) बड़े भारी राष्ट्र को (विद ) प्राप्त कर सको और जिस प्रकार से बड़े भारी ज्ञान को प्राप्त कर सको उस प्रकार से आप लोग (स्वयं) अपने आप ( तविषीं ) बड़ी भारी सेना व शक्ति को ( दधिध्वे ) धारण करो। और आप लोग ( महान्तः ) बड़े भारी सामर्थ्यवान् होकर ( उर्विया ) खूब बहुत अधिक (विराजथ ) सुशोभित होवो । ( ओजसा ) बल पराक्रम से आप लोग (अन्तरिक्षं) वायुओं के समान आकाश को वा राष्ट्र के समस्त भीतरी भाग को ( वि ममिरे) विविध प्रकार से मापो और उसको वश करो, और ( अन्तरिक्षं वि मिमरे ) अन्तरिक्ष भाग को विमान द्वारा प्राप्त होओ, इस प्रकार ( शुभं याताम् ) शुभ, सन्मार्ग पर जाने वालों के (रथाः ) रथ वा देहादि सत् साधन भी ( अनु अवृत्सत) उत्तरोत्तर अनुकूल होकर रहें और वृद्धि को प्राप्त हों ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः । मरुतो देवताः ॥ छन्द:-१, ५ जगती । २, ४, ७, ८ निचृज्जगती । ९ विराड् जगती । ३ स्वराट् त्रिष्टुप । ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें