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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः

    आ रु॑द्रास॒ इन्द्र॑वन्तः स॒जोष॑सो॒ हिर॑ण्यरथाः सुवि॒ताय॑ गन्तन। इ॒यं वो॑ अ॒स्मत्प्रति॑ हर्यते म॒तिस्तृ॒ष्णजे॒ न दि॒व उत्सा॑ उद॒न्यवे॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । रु॒द्रा॒सः॒ । इन्द्र॑ऽवन्तः । स॒ऽजोष॑सः । हिर॑ण्यऽरथाः । सु॒वि॒ताय॑ । ग॒न्त॒न॒ । इ॒यम् । वः॒ । अ॒स्मत् । प्रति॑ । ह॒र्य॒ते॒ । म॒तिः । तृ॒ष्णऽजे॑ । न । दि॒वः । उत्साः॑ । उ॒द॒न्यवे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रुद्रास इन्द्रवन्तः सजोषसो हिरण्यरथाः सुविताय गन्तन। इयं वो अस्मत्प्रति हर्यते मतिस्तृष्णजे न दिव उत्सा उदन्यवे ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। रुद्रासः। इन्द्रऽवन्तः। सऽजोषसः। हिरण्यऽरथाः। सुविताय। गन्तन। इयम्। वः। अस्मत्। प्रति। हर्यते। मतिः। तृष्णऽजे। न। दिवः। उत्साः। उदन्यवे ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    भा०-हे वीर पुरुषो ! आप लोग ( रुद्रासः ) दुष्टों को रुलाने वाले, शत्रुओं को रोकने वाले, और ( इन्द्रवन्तः ) ऐश्वर्यवान् एवं शत्रुहन्ता नायक को अपना स्वामी बनाकर, (सजोषसः) समान प्रीतियुक्त, समान रूप से अधिकारों और ऐश्वर्यों का भोग करते हुए (हिरण्यरथा) सुवर्ण लोह आदि धातुओं के बने रथों पर स्थित होकर ( सुविताय = सु-इताय ) सुख से जाने वा उत्तम ऐश्वर्य प्राप्त करने के लिये ( आ गन्तन ) आया जाया करो। (इमं ) यह (मतिः ) ज्ञानमयी बुद्धि ( अस्मत् ) हमसे और (दिवः ) हमारी शुभ कामना ( वः ) आप लोगों को (प्रति हर्यंते ) निरन्तर ऐसे प्राप्त हो जैसे ( उदन्यवे तृष्णजे ) जल के इच्छुक, पियासे पुरुष के लिये ( उत्साः ) कूप की जलधाराएं वा (दिवः उत्साः ) आकाश से जलधाराएं प्राप्त हों। अर्थात् हमारे शुभ संकल्पों के लिये आप सदा उत्सुक रहा करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४, ५ जगती । २, ६ विराड् जगती । ३ निचृज्जगती । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ८ निचृत्-त्रिष्टुप ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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