ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 60/ मन्त्र 2
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ ये त॒स्थुः पृष॑तीषु श्रु॒तासु॑ सु॒खेषु॑ रु॒द्रा म॒रुतो॒ रथे॑षु। वना॑ चिदुग्रा जिहते॒ नि वो॑ भि॒या पृ॑थि॒वी चि॑द्रेजते॒ पर्व॑तश्चित् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठआ । ये । त॒स्थुः । पृष॑तीषु । श्रु॒तासु॑ । सु॒ऽखेषु॑ । रु॒द्राः । म॒रुतः॑ । रथे॑षु । वना॑ । चि॒त् । उ॒ग्राः॒ । जि॒ह॒ते॒ । नि । वः॑ । भि॒या । पृ॒थि॒वी । चि॒त् । रे॒ज॒ते॒ । पर्व॑तः । चि॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ये तस्थुः पृषतीषु श्रुतासु सुखेषु रुद्रा मरुतो रथेषु। वना चिदुग्रा जिहते नि वो भिया पृथिवी चिद्रेजते पर्वतश्चित् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठआ। ये। तस्थुः। पृषतीषु। श्रुतासु। सुऽखेषु। रुद्राः। मरुतः। रथेषु। वना। चित्। उग्राः। जिहते। नि। वः। भिया। पृथिवी। चित्। रेजते। पर्वतः। चित् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 60; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
विषय - मरुतों के दृष्टान्त से वीरों, विद्वानों का वर्णन । प्रजा की उत्तम अभिलाषा ।
भावार्थ -
भा०- ( ये ) जो ( रुद्राः ) दुष्टों को रुलाने जौर सबको उपदेश करने वाले वीरजन, विद्वान् जन ( सुखेषु रथेषु ) सुखजनक रथों में और (श्रुतासु पृषतीषु ) चित्र विचित्र अश्वों और हृदय, अन्तःकरण में ज्ञान का रस वर्षाने वाली, श्रवण योग्य विद्याओं में ( आतस्थुः ) विराजते हैं उन ( वः ) आप लोगों के ( भिया ) भय से ( वना चित् ) सूर्य की किरणों के समान तीक्ष्ण, ( उग्राः ) वेग से चलने वाले वायु के समान शत्रुगण भी ( नि जिहते ) नीचे हो जाते हैं, विनीत हो जाते हैं। ( पृथिवी चित् रेजते ) पृथिवी के समान उसमें निवासिनी प्रजा भी कांपती है, उसका आतङ्क और आदर मानती है, (पर्वतः चित् रेजते ) पर्वत या मेघ के तुल्य ऊंचा राजा घोर योद्धा शत्रु भी कांपता, विचलित हो जाता है ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो मरुतो वाग्निश्च देवता ॥ छन्द:- १, ३, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप । विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८ जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें