ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 60/ मन्त्र 3
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतो वाग्निश्च
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पर्व॑तश्चि॒न्महि॑ वृ॒द्धो बि॑भाय दि॒वश्चि॒त्सानु॑ रेजत स्व॒ने वः॑। यत्क्रीळ॑थ मरुत ऋष्टि॒मन्त॒ आप॑इव स॒ध्र्य॑ञ्चो धवध्वे ॥३॥
स्वर सहित पद पाठपर्व॑तः । चि॒त् । महि॑ । वृ॒द्धः । बि॒भा॒य॒ । दि॒वः । चि॒त् । सानु॑ । रे॒ज॒त॒ । स्व॒ने । वः॒ । यत् । क्रीळ॑थ । म॒रु॒तः॒ । ऋ॒ष्टि॒ऽमन्तः॑ । आपः॑ऽइव । स॒ध्र्य॑ञ्चः । ध॒व॒ध्वे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्वतश्चिन्महि वृद्धो बिभाय दिवश्चित्सानु रेजत स्वने वः। यत्क्रीळथ मरुत ऋष्टिमन्त आपइव सध्र्यञ्चो धवध्वे ॥३॥
स्वर रहित पद पाठपर्वतः। चित्। महि। वृद्धः। बिभाय। दिवः। चित्। सानु। रेजत। स्वने। वः। यत्। क्रीळथः। मरुतः। ऋष्टिऽमन्तः। आपःऽइव। सध्र्यञ्चः। धवध्वे ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 60; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
विषय - मरुतों के दृष्टान्त से वीरों, विद्वानों का वर्णन । प्रजा की उत्तम अभिलाषा ।
भावार्थ -
भा०-हे वीर, विद्वान् पुरुषो ! ( वः स्वने ) आपका गर्जन और उपदेश होने पर ( पर्वतः चित् ) मेघ वा पर्वत के तुल्य ( वृद्धः ) बल शक्ति में बढ़ा हुआ शत्रु भी ( महि बिभाय ) बहुत अधिक भयभीत होता है । (दिवः चित् सानु ) आकाश के उच्च भाग के समान (दिवः सानु ) तेजस्वी, और धनार्थी पुरुष का भी शिखर, शिर आदि कांप जाता है, वह भी अस्थिरबुद्धि हो जाता है। हे ( मरुतः ) वीरो ! विद्वान् पुरुषो ! (यत्) जब आप लोग (ऋष्टि-मन्तः) शस्त्रों और उत्तम ज्ञानों से सम्पन्न होकर (क्रीडथ ) विहार, विनोद करते हो तब जिस प्रकार वायु वेगों से जलधाराएं मेघ से एक साथ नीचे आ उतरती हैं उसी प्रकार आप लोग भी ( आपः ) जल धाराओं के समान, आप्त, (स ध्र्यञ्चः ) एक साथ गमन करते हुए ( धवध्वे ) शत्रुगण को कंपाओ और आगे बढ़ो ।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो मरुतो वाग्निश्च देवता ॥ छन्द:- १, ३, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप । विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८ जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इस भाष्य को एडिट करें