ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - मरुतो वाग्निश्च
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
व॒राइ॒वेद्रै॑व॒तासो॒ हिर॑ण्यैर॒भि स्व॒धाभि॑स्त॒न्वः॑ पिपिश्रे। श्रि॒ये श्रेयां॑सस्त॒वसो॒ रथे॑षु स॒त्रा महां॑सि चक्रिरे त॒नूषु॑ ॥४॥
स्वर सहित पद पाठव॒राःऽइ॑व । इत् । रै॒व॒तासः॑ । हिर॑ण्यैः । अ॒भि । स्व॒धाभिः॑ । त॒न्वः॑ । पि॒पि॒श्रे॒ । श्रि॒ये । श्रेयां॑सः । त॒वसः॑ । रथे॑षु । स॒त्रा । महां॑सि । च॒क्रि॒रे॒ । त॒नूषु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वराइवेद्रैवतासो हिरण्यैरभि स्वधाभिस्तन्वः पिपिश्रे। श्रिये श्रेयांसस्तवसो रथेषु सत्रा महांसि चक्रिरे तनूषु ॥४॥
स्वर रहित पद पाठवराःऽइव। इत्। रैवतासः। हिरण्यैः। अभि। स्वधाभिः। तन्वः। पिपिश्रे। श्रिये। श्रेयांसः। तवसः। रथेषु। सत्रा। महांसि। चक्रिरे। तनूषु ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 60; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
विषय - विवाहित वरों के तुल्य सुदृढ़, सुन्दर होने का उपदेश ।
भावार्थ -
भा०-हे वीर पुरुषो ! ( वरा इव रैवतासः ) जिस प्रकार विवाह योग्य वर लोग धन सम्पन्न, होकर (तन्व: ) शरीरों को ( हिरण्यैः ) सुवर्ण के आभूषणों से और ( स्वधाभिः ) अन्नों से (पिपिश्रे) अपने को सजाते और अंग २ को पुष्ट करते हैं उसी प्रकार आप लोग भी (रैवतासः ) धन-धान्य और पशु सम्पत्ति से सम्पन्न होकर ( हिरण्यैः स्वधाभिः ) हित और रमणीय गुणों, सुवर्णादि आभूषणों और अपने देह की धारक शक्ति और अन्नों से ( तन्वः पिपिश्रे ) अपने शरीर के प्रत्येक अंग को सुन्दर और दृढ़ करो। और आप लोग ( श्रेयांसः ) अति श्रेष्ठ और ( तवसः ) बलशाली होकर ( रथेषु ) रथों पर आरूढ़ होकर और (तनूषु ) अपने देहों में सुशोभित रहकर ( श्रिये ) धन समृद्धि और शोभा की वृद्धि के लिये (महांसि सत्रा ) बड़े २ युद्ध और बड़े २ यज्ञ, अधिवेशन आदि ( चक्रिरे ) करें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो मरुतो वाग्निश्च देवता ॥ छन्द:- १, ३, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ भुरिक् त्रिष्टुप । विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८ जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
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