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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 64 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अर्चनाना आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    ता बा॒हवा॑ सुचे॒तुना॒ प्र य॑न्तमस्मा॒ अर्च॑ते। शेवं॒ हि जा॒र्यं॑ वां॒ विश्वा॑सु॒ क्षासु॒ जोगु॑वे ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । बा॒हवा॑ । सु॒ऽचे॒तुना॑ । प्र । य॒न्त॒म् । अ॒स्मै॒ । अर्च॑ते । शेव॑म् । हि । जा॒र्य॑म् । वा॒म् । विश्वा॑सु । क्षासु॑ । जोगु॑वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता बाहवा सुचेतुना प्र यन्तमस्मा अर्चते। शेवं हि जार्यं वां विश्वासु क्षासु जोगुवे ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता। बाहवा। सुऽचेतुना। प्र। यन्तम्। अस्मै। अर्चते। शेवम्। हि। जार्यम्। वाम्। विश्वासु। क्षासु। जोगुवे ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    भा०-हे ( मित्रावरुणा ) प्रजा के स्नेही एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण एवं क्षात्र वर्गों ! पुरुषो ! ( ता ) वे आप दोनों (अस्मै ) इस ( अर्चते ) स्तुति करने हारे प्रजाजन को ( बाहवा ) अपने शत्रु-बाधक बाहुबल और अज्ञान-बाधक ( सुचेतुना ) उत्तम ज्ञान से ( जार्यं ) स्तुति करने योग्य, दुःखों को जीर्ण करने वाला ( शेवं ) सुख ( प्र यन्तम् ) प्रदान करो । और मैं विद्वान् प्रजाजन ( वां ) आप दोनों के ( जार्यं ) स्तुत्य कार्य की ( विश्वासु आसु ) समस्त भूमियों में ( जोगुवे ) प्रशंसा करूं वा उपदेश करूं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अर्चनाना ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, २ विराडनुष्टुप् ॥ ६ निचृदनुष्टुप्, । ३, ५ भुरिगुष्णिक् । ४ उष्णिक् । ७ निचृत् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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