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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 69/ मन्त्र 2
इरा॑वतीर्वरुण धे॒नवो॑ वां॒ मधु॑मद्वां॒ सिन्ध॑वो मित्र दुह्रे। त्रय॑स्तस्थुर्वृष॒भास॑स्तिसृ॒णां धि॒षणा॑नां रेतो॒धा वि द्यु॒मन्तः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठइरा॑ऽवतीः । व॒रु॒ण॒ । धे॒नवः॑ । वा॒म् । मधु॑ऽमत् । वा॒म् । सिन्ध॑वः । मि॒त्र॒ । दु॒ह्रे॒ । त्रयः॑ । त॒स्थुः॒ । वृ॒ष॒भासः॑ । ति॒सॄ॒णाम् । धि॒षणा॑नाम् । रे॒तः॒ऽधाः । वि । द्यु॒ऽमन्तः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इरावतीर्वरुण धेनवो वां मधुमद्वां सिन्धवो मित्र दुह्रे। त्रयस्तस्थुर्वृषभासस्तिसृणां धिषणानां रेतोधा वि द्युमन्तः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठइरावतीः। वरुण। धेनवः। वाम्। मधुऽमत्। वाम्। सिन्धवः। मित्र। दुह्रे। त्रयः। तस्थुः। वृषभासः। तिसृणाम्। धिषणानाम्। रेतःऽधाः। वि। द्युऽमन्तः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 69; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
विषय - सभा-सेनाध्यक्षों की शक्तियों, प्रजाओं के कर्त्तव्य और तीन सभाओं का वर्णन ।
भावार्थ -
भा०-जिस प्रकार ( इरावतीः धेनवः ) दूध वाली गौवें ( मधुमद् दुहे ) मधुर रसयुक्त दूध देती हैं और जिस प्रकार ( इरावतीः सिन्धवः मधुमत् दुह्रे ) जल से पूर्ण नदियें अन्न से युक्त जल-राशि वा जल से युक्त अन्न प्रदान करती हैं उसी प्रकार हे ( मित्र वरुण ) सर्वप्रिय न्यायाधीश, सभापते ! हे दुष्टों के वारक, सेनापते ! ( वाम् ) आप दोनों की ( धेनवः ) वाणियां (इरावती: ) रस से युक्त और अपने अधीन पुरुषों को प्रेरणा करने वाली होकर (मधुमत् ) ज्ञान और बल से युक्त ऐश्वर्यों को उत्पन्न करें और ( वां सिन्धवः ) आप लोगों की प्रेरणा शक्ति वाली, वेग से जाने वाली और प्रजागण को उत्तम प्रबन्ध में बांधने वाली आज्ञाएं और सेनाएं ( मधुमत् दुह्रे ) मधुर फल एवं बलयुक्त राष्ट्र को प्रदान करती हैं । जिस प्रकार ( तिसृणाम् धिषणानाम् ) सूर्य, आकाश और पृथिवी तीन लोकों के बीच में ( त्रयः बृषभासः रेतो-धाः द्युमन्तः वि तस्थुः ) तीन बलवान् वर्षणशील, जल, वीर्य को धारण करने वाले तेजस्वी सूर्य विद्युत् और अग्नि, वायु और जल तीनों विशेष रूप से विराजते हैं उसी प्रकार (तिसृणां ) तीन ( धिषणानाम् ) अध्यक्ष होकर आज्ञा प्रदान करने वाली राष्ट्रधारक, तीन सभाओं के ऊपर ( त्रयः ) तीन ( वृषभाः ) बलवान्, उत्तम प्रबन्धकर्त्ता, धर्मानुकूल शासन से चमकने वाले (रेतोधाः ) बल वीर्य को धारण करने वाले, ( द्युमन्तः ) तेजस्वी, व्यवहार कुशल, इच्छाशक्ति से युक्त, प्रधान पुरुष (वि तस्थुः ) विशेष रूप से स्थित हों ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - उत्चक्रिरात्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द-१,२ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४ विराट् त्रिष्टुप् ॥ चतुऋचं सूक्तम् ॥
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