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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 69/ मन्त्र 4
    ऋषिः - उरूचक्रिरात्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    या ध॒र्तारा॒ रज॑सो रोच॒नस्यो॒तादि॒त्या दि॒व्या पार्थि॑वस्य। न वां॑ दे॒वा अ॒मृता॒ आ मि॑नन्ति व्र॒तानि॑ मित्रावरुणा ध्रु॒वाणि॑ ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । ध॒र्तारा॑ । रज॑सः । रो॒च॒नस्य॑ । उ॒त । आ॒दि॒त्या । दि॒व्या । पार्थि॑वस्य । न । वा॒म् । दे॒वाः । अ॒मृताः॑ । आ । मि॒न॒न्ति॒ । व्र॒तानि॑ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । ध्रु॒वाणि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या धर्तारा रजसो रोचनस्योतादित्या दिव्या पार्थिवस्य। न वां देवा अमृता आ मिनन्ति व्रतानि मित्रावरुणा ध्रुवाणि ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या। धर्तारा। रजसः। रोचनस्य। उत। आदित्या। दिव्या। पार्थिवस्य। न। वाम्। देवाः। अमृताः। आ। मिनन्ति। व्रतानि। मित्रावरुणा। ध्रुवाणि ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 69; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    भा०-हे ( मित्रावरुणा ) स्नेहवान् एवं वरण करने योग्य श्रेष्ठजनो ! (याः ) जो आप दोनों ( रोचनस्य ) तेजस्वी, सूर्यवत् ज्ञान प्रकाश से युक्त, सर्वप्रिय एवं ( पार्थिवस्य ) पृथिवी पर रहने वाले समस्त ( रजसः ) लोकों को ( धर्त्तारा ) धारण करने वाले, (दिव्या) ज्ञान प्रकाश में और विजिगीषा, व्यवहार आदि में प्रौढ़, ( आदित्या ) ज्ञान और कर आदि लेने और देने में तथा भूमि और सरस्वती के वश करने में चतुर हो उन ( वां) आप दोनों के ( अमृता ) कभी नाश न होने वाले ( ध्रुवाणि व्रतानि ) स्थिर व्रतों, कर्मों को ( देवाः ) ज्ञानाभिलाषी शिष्य और ऐश्वर्याभिलाषी प्रजाजन ( न आमिनन्त ) कभी खण्डित नहीं करते । इति सप्तमो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - उत्चक्रिरात्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द-१,२ निचृत्त्रिष्टुप् । ३, ४ विराट् त्रिष्टुप् ॥ चतुऋचं सूक्तम् ॥

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