ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
सं यदि॒षो वना॑महे॒ सं ह॒व्या मानु॑षाणाम्। उ॒त द्यु॒म्नस्य॒ शव॑स ऋ॒तस्य॑ र॒श्मिमा द॑दे ॥३॥
स्वर सहित पद पाठसम् । यत् । इ॒षः । वना॑महे । सम् । ह॒व्या । मानु॑षाणाम् । उ॒त । द्यु॒म्नस्य॑ । शव॑सा । ऋ॒तस्य॑ । र॒श्मिम् । आ । द॒दे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं यदिषो वनामहे सं हव्या मानुषाणाम्। उत द्युम्नस्य शवस ऋतस्य रश्मिमा ददे ॥३॥
स्वर रहित पद पाठसम्। यत्। इषः। वनामहे। सम्। हव्या। मानुषाणाम्। उत। द्युम्नस्य। शवसा। ऋतस्य। रश्मिम्। आ। ददे ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
विषय - सहस्वान् नप्ता, अग्नि सेनापति, उसके कत्तव्य । यज्ञ की व्याख्या ।
भावार्थ -
भा०-जिस प्रकार सूर्य अपने ( शवसा ) तेज से (ऋतस्य रश्मिम् ) जल के ग्रहण करने वाले किरण को धारण करता है उससे प्राणी जन ( इषः हव्या ) अन्नादि खाद्य पदार्थ वा वृष्टियां प्राप्त करते हैं उसी प्रकार (यत्) जिस पुरुष से हम लोग ( इषः ) अन्न आदि इच्छा योग्य पदार्थ और सैन्यादि और ( मानुषाणां हव्या ) मनुष्यों के योग्य पदार्थ ( वनामहे) प्राप्त करते हैं और (यत्) जो ( शवसा ) अपने बल पराक्रम से (द्युम्नस्य ) ऐश्वर्यं और (ऋतस्य ) सत्य ज्ञान वा न्याय के ( रश्मिम् ) बागडोर को ( आददे ) संभालता है वही उत्तम 'अग्रि' अर्थात् अग्रणी,' नायक है ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इष आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्द-१ विराडनुष्टुप् । २ अनुष्टुप ३ भुरिगनुष्टुप् । ४, ५, ८, ९ निचृदनुष्टुप् ॥ ६, ७ स्वराडुष्णिक् । निचृद्बृहती॥ नवचं सूक्तम् ॥
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