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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 71/ मन्त्र 2
विश्व॑स्य॒ हि प्र॑चेतसा॒ वरु॑ण॒ मित्र॒ राज॑थः। ई॒शा॒ना पि॑प्यतं॒ धियः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठविश्व॑स्य । हि । प्र॒ऽचे॒त॒सा॒ । वरु॑ण । मित्र॑ । राज॑थः । ई॒शा॒ना । पि॒प्य॒त॒म् । धियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वस्य हि प्रचेतसा वरुण मित्र राजथः। ईशाना पिप्यतं धियः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठविश्वस्य। हि। प्रऽचेतसा। वरुण। मित्र। राजथः। ईशाना। पिप्यतम्। धियः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 71; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
विषय - ज्ञानी और सर्वप्रिय जनों का ज्ञान और लोकोपयोगी कर्मों के बढ़ाने का उपदेश ।
भावार्थ -
भा०-हे (वरुण मित्र) वरुण अर्थात् श्रेष्ठ पदार्थों, ज्ञानों और गुणों के प्रदान करने वाले हे स्नेहवान्, मृत्यु आदि से बचाने वाले, (प्र-चेतसा ) प्रकृष्ट ज्ञान से सम्पन्न पुरुषो ! हे (ईशाना) सामर्थ्यवान् जनो ! आप लोग ( विश्वस्य ) समस्त राष्ट्र के ( हि ) निश्चय से ( राजथः ) राजा के तुल्य विराजते हो । आप दोनों ( धियः ) हज़ारों समस्त कर्मों और ज्ञानों को (पिप्यतम् ) बढ़ाओ, पुष्ट करो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बाहुवृक्त आत्रेय ऋषिः ।। मित्रावरुणौ देवते । गायत्री छन्दः ॥ तृचं सुक्तम् ॥
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